“रत्ती, तुम्हें हेड सर ने बुलवाया है स्कूल में? अपना खुमचा साथ लेकर आना….”
नाम रतनलाल शर्मा था, पर सारे ‘रत्ती’ बुलाते!
आज भी रत्ती का नाम लेते ही मुंह में चटखारा गूँज उठता है जैसे! उसके खुमचे की चाट, दहीबडे, मूंग की पकौड़ियाँ स्कूली दिनों की चटखारेदार याद दिला देती है. घर से स्कूल जाने के लिए, बस के किराए स्वरूप मिले दस पैसों में से पांच पैसे बचा लेते हम. सुबह थोड़ा जल्दी निकलते घर से ताकि पैदल जा सकें और एक तरफ का किराया बचा लें!
रत्ती मेरी स्कूल के गेट के सामने अपना खुमचा लगाया करता था. पांच पैसे में एक प्लेट चाट, पकौड़ी या दहीबडे मिल जाते. स्कूल में बीच की छुट्टी का समय रत्ती के खुमचे पर भारी भीड़ होती हम सबकी.
“रत्ती, मुझे एक प्लेट चाट देना. काला नमक ज़रा कम डालियो, कल तीखा हो गया था….”
“रत्ती, कांदा डाल न बे और….कांदे में भी कंजूसी?”
“रत्ती, जल्दी दे न! अभी घंटा बजा देंगे गौरीशंकर भैया….”
पांचवी से लेकर सातवीं तक के बच्चों की स्कूल सुबह होती और नौ बजे, बीच की छुट्टी! उस समय रत्ती की उम्र रही होगी अट्ठाईस बरस की पर वह कभी बच्चों की तू-तड़ाक का बुरा न मानता. आधे घंटे की छुट्टी में सबके प्रश्नों के उत्तर व उनकी डिमांड पूरी करने की मल्टी-टास्किंग चलती रहती उसकी…..
“अरे देख प्लेट गिरा देगा! अरे तेरे दोस्त के धक्के से कांदा नीचे गिर गया, मैं कहाँ कभी कंजूसी करता हूँ? चल ये ले और…. हाँ, तूने दहीबडे मांगे थे या पकौड़ी?”
उसके हाथ और जुबान निरंतर चलते रहते. उसे किसी पर गुस्सा करते नहीं देखा था कभी, ना कभी कोई बीमार पडा उसके पदार्थ खाकर!
मुझे याद है, छठी पास कर सातवीं में पहुंचे थे हम. उस वर्ष की शुरुआत के पंद्रह दिन तो रत्ती हमेशा की भांति खुमचा लेकर आया पर फिर बंद कर दिया उसने आना. बच्चे छुट्टी में उसे न देख निराश हो जाते.
फिर एक दिन स्कूल के ही किसी काम से, हम दो मित्र हमारी स्कूल से दस मिनट के अंतर पर स्थित, एम.बी. विद्यालय गए;
“अबे वो देख! ये रत्ती, साला इधर लगाकर खड़ा है खुमचा!”
मित्र हाथ से इशारा करते हुए बोला. सचमुच वही था. उसके खुमचे पर कोई न था. मलिन मुद्रा लिये खड़ा था वह. पूछने पर कहने लगा;
“इस स्कूल के सारे बच्चे उस ठेले पर जाते हैं, मेरे पास कम ही आते हैं…..”
“अबे तो हमारी स्कूल पे आना बंद क्यूँ किया फिर?”
मैंने पूछ लिया. वह चुप रहा. बार बार पूछने पर भी बोला नहीं कुछ भी! उसी दिन सारे बच्चों को यह जानकारी दे दी गई. दूसरे दिन से ही सारी पलटन एम.बी. विद्यालय पर!!
छुट्टी में स्कूल के प्रांगण में एवं गेट पर बच्चों की संख्या में लक्षणीय कमी और तीनों कक्षाओं में, बीच की छुट्टी के बाद, विलंब से पहुँच रहे कुछ बच्चों को देख शिक्षक चौंक गए. उनकी पूछताछ से सारा माजरा भी साफ हो गया. प्रधानाचार्य महोदय के कानों पर भी यह बात पहुँची. सुबह की प्रार्थना के समय उपस्थित सारे बच्चों को ताकीद की गई और सातवीं के कुछ छात्रों को, स्कूल छूटने के बाद, ऑफिस में आने को कहा गया!
“यह क्या लगा रखा है तुम लोगों ने? तुम लोग नहीं जाओगे तो बाकी भी नहीं जाएंगे. समझ रहे हो?”
“सर, उसका धंधा चलता नहीं उधर….. जब तक यहाँ आता था, बढ़िया काम चलता था. अब बेचारा मक्खियां मारता है. गरीब है सर. पता नहीं यहाँ आना क्यों बंद कर दिया? हमने बहुत पूछा पर कुछ बताया नहीं उसने….”
हममें से कुछ ने उसका पक्ष रखा. कुछ शिक्षकों ने भी साथ दिया हम लोगों का. हेड सर पसीजे और बोले;
“कल उससे कहो, बीच की छुट्टी में आकर मिल ले मुझसे!”
हम वही संदेशा दे रहे थे उसे…..
दूसरे दिन नियत समय पर आ गया वह स्कूल में. हेड सर के ऑफिस में उसकी पेशी लगी हुई थी और बाहर खडे पचासों बच्चे बडी आतुरता से देख-सुन रहे थे.
“तुमने यहाँ से खुमचा क्यों उठा लिया? जानते हो बच्चे तुम्हारे पीछे वहाँ तक आते हैं और फिर देर हो जाती है वापिस आने में उन्हें…..”
“मत पूछिए सर. मैं नहीं बताऊंगा!”
वह नजरें नीची किए बोल रहा था. उसके शब्दों की दृढ़ता से प्रधानाचार्य सर भी चौंक गए. उन्हें माजरा कुछ और ही लग रहा था. कहने लगे;
“फिर भी….कुछ पता तो चले! मैं बच्चों पर सख्ती नहीं करना चाहता. इसीलिए तुम्हें बुलाया भी है. तुम हो कि…”
“मुझे मजबूर न करें सर……मैं नहीं बता सकता कारण!”
वह टस से मस न हुआ. बच्चों पर प्रतिबंध लगने से उसका नुकसान ही होता…..
“ये साला बता क्यूँ नहीं रहा कुछ? अजीब है….”
बच्चे आपस में फुसफुसा रहे थे…..कि तभी;
“मैं बताता हूँ सर, वह क्या नहीं बताना चाहता!”
मराठी पढ़ाने वाले बोबडे सर आगे आते हुए बोल रहे थे….
“इसी वर्ष इसकी बेटी का एडमिशन हुआ है पांचवीं कक्षा में. अपनी बेटी के मन में हीन भावना जगाने का निमित्त नहीं होना चाहता यह! इसीलिए बता नहीं रहा….. मेरे मुहल्ले ही में रहता है इसलिए जानता हूँ मैं…”
सारी बात समझ में आ गई थी हेड सर के. रत्ती अब भी दृढ़ था अपने निर्णय पर! उन्होंने उसे स्टाफ रूम में बैठने को कहा. स्टाफ रूम की खिड़की से रत्ती ऑफिस में चल रहा देख-सुन सकता था पर वहाँ खडे व्यक्ति को वह स्वयं न दिखाई देता.
सर ने उसकी बेटी को बुला लिया था ऑफिस में….वह बेचारी इस घटनाक्रम से अंजान, आ पहुँची!
“क्या नाम है तुम्हारा?”
“जी, सविता है सर!”
“पिता का नाम?”
“जी, रतनलाल शर्मा….”
“रत्ती कौन है फिर?”
“मेरे पिताजी हैं सर. सारे रत्ती कहते हैं उन्हें….”
“क्या करते हैं तुम्हारे पिता?”
“चाट का खुमचा लगाते हैं सर….”
“तुम्हें पता है, कहाँ लगाते हैं वह अपना खुमचा?”
बेचारी छोटी सी लड़की, इन सवालों से घबरा गई थी….
“शायद किसी स्कूल के सामने लगाते हैं सर. स्कूल का नाम पता नहीं मुझे….”
“अच्छा यदि मैं तुम्हें बता दूँ कि तुम्हारे पिता अपनी स्कूल के गेट पर खुमचा लगाते हैं तो क्या तुम्हें शर्म आएगी उनपर?”
“नहीं सर….. मेरे पिताजी हैं वे. मैं भला क्यों शर्माऊँ?”
“शाबाश बेटा, जाओ. खूब मन लगाकर पढ़ो और अपने पिता का नाम रौशन करो!”
बेटी को वापिस भेज, पिता को बुला लिया गया. रत्ती स्टाफ रूम में बैठा, सब सुन चुका था. उसकी आंखें भरी हुई थीं.
“देखा, तुम्हारी बेटी सब जानती-समझती है. तुम नाहक चिंता कर रहे थे रत्ती! मेहनत और ईमानदारी से किया गया कोई काम, शर्मिंदा नहीं कर सकता किसी को. कोई काम छोटा भी नहीं होता. मैं कभी ऐसे किसी प्रस्ताव को न मानता यदि कोई और होता तुम्हारे स्थान पर!
जो भी जानकारी तुम्हारे बारे में मिली है, अत्यंत सकारात्मक है. अपने मन की हीन भावना त्यागनी होगी तुम्हें. वरना तुम्हारा काम तो नहीं पर यह भीतर की हीन भावना जरूर बुरा प्रभाव डालेगी तुम्हारी बेटी पर. समझ रहे हो? वैसे ठाकुर सर, यह इतने ही स्वादिष्ट पदार्थ बनाता है तो अपनी मीटींग्ज में इसे क्यों नहीं ऑर्डर करते हम?”
“सर, करते हैं! आपने कई बार आस्वाद भी लिया है और तारीफ भी की है…. बस आप जानते नहीं थे!”
ठाकुर सर और हेड सर की आंखों में हँसी, सबको दिख रही थी. चट्टान सा दृढ़ रत्ती, पिघल कर आंखों से बहने लगा था!
बच्चे खुश! रत्ती कल से फिर आने वाला था स्कूल के गेट पर…..