अक्सर हम “महाभारत के कर्ण हो जाना” का जुमला इस्तेमाल करते हैं. ये दरअसल हिन्दुओं की एक ख़ास किस्म की मानसिक बीमारी है. इसमें जीव खुद को अचानक भगवान समझ लेता है और नैतिकता के ऊँचे पायदान पर चढ़ के बैठ जाता है.
अचानक उसे लगने लगता है कि सारी नैतिकता का ठेका, बोलें तो एक्सक्लूसिव राईट उसे मिले हुए हैं. उसके हटते ही धर्म के चारों स्तम्भ धरती-आसमान के बीच से हट जायेंगे. हिंदी में ऐसी स्थितियों के लिए कहावतों की जरा कमी है.
मैथिलि में इसके लिए “टीटही” शब्द कह देना काफी होता है. मैथिलि जानने-बोलने वालों को पता होता है कि टीटही एक ऐसी चिड़िया होती है जिसके बारे में माना जाता है कि वो टाँगे आसमान की तरफ उठा कर, उल्टी सोयी होती है. उसका मानना होता है कि रात में उसके सोते वक्त अगर कहीं आसमान गिरा तो वो अपनी टांगों पर उसे रोक लेगी.
नैतिकता के इस ऊँचे मंच पर चढ़ के खड़े हिन्दुओं में सामान्य बुद्धि का सम्पूर्ण लोप हो जाता है. उसे याद नहीं रहता कि शादी-ब्याह, अन्य आयोजनों पर भी आप उसी को बुलाते हैं, जो अपने घर आयोजनों में आपको बुलाता है. जो कभी नहीं बुलाते उन सब को भी आमंत्रित नहीं करने लगते.
नैतिकता भी उनके ही लिए होती है जो खुद नैतिक हों. महाभारत में श्री कृष्ण भी अर्जुन और कर्ण को यही समझा रहे होते हैं. जब लाक्षागृह, द्युत, वस्त्रहरण, या अभिमन्यु की बारी में धर्म नहीं याद आया था तो अपनी बारी में कर्ण को धर्म याद नहीं दिलाना चाहिए.
जिन्हें आज गोरक्षा वाले मामले में कानून का राज याद आ रहा है वो शायद IPC की बात कर रहे हैं. जब भारत में ये इंडियन पीनल कोड लागू हुआ था तभी डोगरा महाराज ने कश्मीर में RPC अर्थात रणबीर पीनल कोड लागू किया था (सन 1862).
इस रणबीर पीनल कोड के नियम कायदे काफी हद तक इंडियन पीनल कोड जैसे ही हैं. मतलब इसी दौर में जो शरियत वाली चोर का हाथ काटने वाली सजा जो थी, वो भारत से ख़त्म कर दी गई थी.
सितम्बर 2015 में इसी RPC के 298A और 298B की वैधता पर कश्मीर के उच्च न्यायलय में बहस हो रही थी. 298A के मुताबिक गाय, बैल या भैंस को जिबह करना अपराध है जिसमें दस साल की सजा और जुर्माना हो सकता है.
298B में ऐसे जानवर के मांस के साथ पकड़े जाने पर एक साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. अदालत ने जब इन कानूनों को ख़त्म करने से मना कर दिया था तो इसके विरोध में “समुदाय विशेष” के कई लोगों ने सरेआम सड़कों पर गायों को काटा था.
वो कानून तोड़ें तो भावनाएं आहत हो गई थी इसलिए जायज है, हम वही कर दें तो नैतिकता के ऊँचे मंच पर चढ़ा होने के कारण गलत कर रहे हैं?
कनफ्लिक्ट यानि फसाद में मजहब बीच में लाने को तो आपकी पत्रकारिता की किताबों में अनैतिक कहा जाता है ना? बताइए पत्तरकार महोदय कि आप ये अनैतिक हरकत किन पैसों के लालच में कर रहे हैं?
मामला अनैतिक का ही है तो डॉ. नारंग के मामले में हत्यारे कौन थे आज बता दीजिये ना? क्यों मारा था बीच दिल्ली में?
बाकी जैसे इन भारी शब्दों के कुली ओवैसी नहीं होते वैसे ही हम भी नहीं होते. अनैतिकों के लिए नैतिकता मेरी मजबूरी नहीं है.