यूं तो कृष्ण और राम दोनों एक ही अवतार से अवतरित दो नाम हैं, लेकिन जब एक ही परमात्मा को अवतरित होना था तो क्यों दो भिन्न नामों के साथ हुए?
क्योंकि ब्रह्माण्ड के रहस्यों को, जीवन के रस को और मानव मात्र के चरित्र को यदि एक ही अवतार में सुसंपन्न करके हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता, हम और अधिक भ्रमित हो रहे होते, भ्रमित तो आज भी है जीवन की विविधता को लेकर.
राम को मर्यादा पुरुषोत्तम इसलिए नहीं कहा गया कि उसने सीता के सिवा किसी परस्त्री से प्रेम नहीं किया. वो भी राम का प्रेम ही था जो उसने शबरी के झूठे बेर खाना स्वीकार किया था, वो भी राम का प्रेम ही था जब उसने पत्थर हो चुकी अहिल्या को स्पर्श करना स्वीकार किया था. वो भी राम ही थे जिन्होंने एक किसी स्त्री के प्रणय निवेदन को यह कहकर स्वीकार किया था कि इस जन्म में तो मैं केवल सीता के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हूँ लेकिन अगले जन्म में तुम्हारा यह निवेदन अवश्य स्वीकार करूंगा और फिर कृष्ण रूप में कुब्जा का उद्धार किया.
ये तो हमारी परिभाषाएं हैं, जो मर्यादा को एक से अधिक स्त्री या एक से अधिक पुरुषों को स्पर्श न करने के सामाजिक नियम से जोड़ देती हैं, और इन नियमों से जोड़ना सार्थक भी है ताकि नर अपने चरित्र को अनुशासित कर सके और पशु से ऊपर उठकर नारायण बनने की प्रक्रिया की ओर अग्रसर हो सके.
लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि आपका एक भी ऐसा स्पर्श जो अत्यंत प्रेमपूर्वक और आत्मा की गहराई से हुआ है वो आपको पिछले जन्म की स्मृति को अवश्य जगाएगा और ऋण से मुक्त कर जाएगा.
लेकिन इसका ये अर्थ कदापि नहीं कि मेरा बांके बिहारी अपने बांकपन के कारण अमर्यादित कहलाए. उसका गोपियों के संग रास, राधा संग प्रीत, मीरा की भक्ति, रुक्मणी सहित 16108 रानियों की बात कल्पना मात्र नहीं है. अपनी सोलह कलाओं में पूर्ण कृष्ण भी उतने ही मर्यादित है. तभी तो एक को मर्यादा पुरुषोत्तम और दूजे को पूर्ण अवतार कहा गया है.
यहाँ मर्यादा को समझने के लिए सूर्य की उपमा देते हैं. सूर्य का धर्म प्रकाश और ऊष्मा देना है, फिर क्या कारण है कि पृथ्वी के आधे हिस्से में ही उसका प्रकाश पहुँच पाता है, कहीं-कहीं पृथ्वी के आधे से भी कम हिस्से में प्रकाश पहुंचता है और पृथ्वी का एक हिस्सा वो भी है जहां कभी रात होती ही नहीं. हम आँखों वाले उसे सूर्य की मर्यादित सीमा कह देते हैं लेकिन वास्तव में तो वो पृथ्वी की मर्यादित सीमा है, जो प्रकाश को पूरी तरह अपने पूरे हिस्से में ग्रहण नहीं कर पाती….
तो राम का “रामत्व” सूर्य का प्रकाश है, वैसे ही जैसे सोलह कलाओं से पूर्ण बांके बिहारी का “बांकपन” उसका प्रकाश है. ये तो इन दोनों के संपर्क में आनेवालों की मर्यादाएं हैं जो इनको पूरा का पूरा ग्रहण नहीं कर पाती….
तो मेरा प्रेम भी सारी मर्यादाओं से मुक्त है, वो स्वच्छंद है, उसी सूर्य की भांति प्रकाश देता है, वो कोई भेदभाव नहीं करता कि मैं अपना प्रकाश सिर्फ उसी तक पहुँचाऊँ जो मुझे प्रेम दे, ये तो उस तक भी स्वत: पहुँच जाता है जो नफरत देता है…. अब ये तो उस प्रकाश को ग्रहण करने वालों की ग्रहणशीलता पर निर्भर करता है जिसे वो अपनी मर्यादा कहते हैं.
बकौल स्वामी ध्यान विनय – “इस सृष्टि में जो भी जीवित मनुष्य है, वो या तो राम लीला कर रहा है या कृष्ण लीला.”
और मैं कहती हूँ – जग में सुन्दर हैं दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम…