मुझे धृतराष्ट्र याद आता है!

उसे भीम को जहर देकर नदी में फेंक देने की साजिशों का पता था. मगर करने वाले सब अपने ही थे तो वो चुप लगा जाता है.

मुझे धृतराष्ट्र याद आता है.

वैसे ही संसद पर हमला करके लोकतंत्र की हत्या करने की साजिश रचने वाले भी दिखते है. एक वर्ग विशेष उस षडयंत्रकारी अफज़ल गुरु के समर्थन में भी उतर आता है.

उसे बताया जाता है कि कैसे लाक्षागृह बनाया गया. कैसे उसमें पांडवों को जला कर मार देने की योजना थी. पांडव किसी तरह भाग निकले हैं उसे ये भी बताया जाता है. मगर करने वाले सब अपने ही थे तो वो चुप लगा जाता है.

मुझे धृतराष्ट्र याद आता है.

ऐसा ही मुद्दा कश्मीर के विस्थापित हिन्दुओं का भी था. उनके भी घर जला दिए गए, मार भगाया गया.

विस्थापित हिन्दुओं पर हुए जुल्म करने वाले भी तो किसी के अपने थे. एक वर्ग विशेष कश्मीर के हिन्दुओं के अपने ही देश में शरणार्थी हो जाने पर भी चुप लगा जाता है.

उसे पता था कि द्युत की योजना क्या है. वो छल को सहमति दे देता है. द्रौपदी बहु थी फिर भी उसे बीच सभा में कपड़े तार तार किये जाने पर वो कुछ नहीं देखता.

वस्त्रों की धज्जियाँ उड़ने पर वो अंधे होने का सुविधाजनक बहाना बना लेता है. करने वाले सब अपने ही थे तो वो चुप लगा जाता है.

मुझे धृतराष्ट्र याद आता है.

ऐसा ही मुंबई में हुआ. किसी पड़ोसी मुल्क से RDX जैसे plastic explosive मंगवा कर पूरे शहर की धज्जियाँ उड़ा दी गई.

सबको पता है कि प्लास्टिक एक्सप्लोसिव बारूद नहीं होता. उसे माचिस से नहीं फोड़ा जाता, महीनों ट्रेनिंग लगी होगी सीखने में.

मगर शहर की धज्जियाँ उड़ाने वाला दाउद भी तो अपना ही था. वर्ग विशेष वहां भी चुप लगा जाता है.

महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया जब, और अत्याचारी मारे गए तो वो अपने बेटों को मारने वाले को भूला नहीं.

कृष्ण भीम को अभ्यास के लिए रखा एक लोहे का पुतला बढ़ा देने कहते हैं. धृतराष्ट्र उसे गले लगाने के बहाने चिपटता है और बाहों में जकड़ कर चूर चूर कर डालता है.

प्रतिशोध भूलता कैसे? अपराधी तो सब अपने ही थे तो वो घात लगाता है.

मुझे धृतराष्ट्र याद आता है.

फिर कहीं मुंबई का आज़ाद मैदान दिखता है. कहीं म्यांमार में हुए किन्ही जुल्मों के लिए वहां शहीदों का स्मारक तोड़ा जाता है. हर तरफ ‘सर तन जुदा’ के नारे सुनाई देते हैं, एक वर्ग विशेष संविधान भी भूल जाता है.

याकूब मेमन जैसे आतंकी के जनाज़े में शामिल भीड़ दिखती है, जो कहती तो है कि ‘आतंक का कोई मजहब नहीं होता’. मगर 20 साल लम्बी अदालती करवाई के बाद फांसी पाया आतंकी उनके लिए अचानक से मोमिन हो जाता है.

फिर स्लीपर सेल्स का उद्भेदन कर देने वाले तंज़ील अहमद की शहादत होती है और वर्ग विशेष में सन्नाटा छा जाता है.

मुझे धृतराष्ट्र याद आता है.

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