बलि

सुना है बलि देने से देवी तो प्रसन्न होती ही हैं, बकरों-भैंसों को काटने से हममें वीर्य और शौर्य आता है. यह भी सुना है कि यह हज़ारों वर्ष पुरानी हमारी थाती परम्परा है. बेज़ुबानों को काट-काट कर हमें अपनी परम्परा और वीरता दोनों की रक्षा करनी है, दोनों को बढ़ाना है.

अब देखिए .. हम बकरा काटने वाले कितने वीर हो गए. मुट्ठी भर मंगोल, तुर्क, पठान, यवन आते रहे.. हमारा देस, धर्म और इज़्ज़त कब्जाते रहे, और हम अगले नवरात्रि के लिए बकरे को मोटा करने में लगे रहे. अपना वीर्य बकरों पर निकलता रहा.

कभी कुछ गांव की कुल जनसंख्या के बराबर फ़िरंगी आए, उससे पहले एक नाव बराबर ही लोगों के साथ शायद कोई ‘सर टॉमस रो’ आया भिखारी की तरह … धीरे धीरे वह ईस्ट इंडिया कम्पनी बनता गया, हम बकरों में वीर्य देखते रह गए. आगे तो ख़ैर जानते ही हैं.

छोड़िए कल की बातें …. कल की बात पुरानी. आज भी हमारी बकरा काटक वीरता की कोई सानी थोड़े है? कोई शहाबुद्दीन सरे आम नहला देता है किसी चंदा बाबू के बेटे को एसिड से, हमारी वीरता तब भी छागर तक ही सीमित रहती है.

कोई आज़म खान हमारी मां भारती को डायन कह कर भी दशक भर हमारा सूबेदार बना रहता है, हम उसकी भैंस खोजने में व्यस्त रहते हैं. हज़ारों वर्षों में ऐसी गाथाओं की कमी नही. बस हमारा बकरा मुर्दाबाद होता रहे तो धर्म की ज़रा रक्षा हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भाव की तो ख़ैर हमें कोई ज़रूरत ही नही.

आइए …तिलक कीजिए आज सब मिलकर बकरों के ताज़े चढ़े रक्त का. आज शाम में भी मां के ‘प्रसाद’ को विभिन्न मसालों के साथ भून कर ग्रहण करने का पुण्य लाभ लेकर हम अपने वीरता की रक्षा करेंगे. अब कोई नही है टक्कर में, अपनी प्रतिस्पर्धा बस नज़दीक के क़स्बे में बकरा हलाल कर मांस बेचते चिकबे (कसाई) से है, वह ज़रूर हमसे ज़्यादा वीर बच गया है, क्योंकि उसका यह वीरता भरा अनुष्ठान रोज़ का है.

आइए अपने सबसे बड़े दुश्मन बकरों और भैंसों को काट मां को चढ़ाते हुए मातृत्व की मर्यादा बढ़ायें. वो मां ही क्या जिसे रक्त न पिलाया जाय उनकी अपनी ही अबोध सन्ततियों का.

जय-जय.

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