जब आप एक ऐसी थ्रिलर बना रहे हो, जिसमे महिला सशक्तिकरण का मुद्दा प्रमुखता से जुड़ा हो तो होशो हवास में फ़िल्म बनाई जानी चाहिए. नीरज पांडे के प्रोडक्शन में बनी फ़िल्म ‘नाम शबाना’ एक ऐसी दुर्घटना है जो उनके कॅरियर में बिलकुल ठीक वक्त पर घटी है.
नाम शबाना से पहले ‘बेबी’ में उनका परफेक्शन उतार पर था. ‘स्पेशल-26’ बेबी से बेहतर थी और अब बेबी को हम नाम शबाना से बेहतर कह सकते हैं. कहने का तात्पर्य ये है कि नीरज पांडे की कसावट में लगातार कमी आती गई और इसकी परिणीति ‘नाम शबाना’ की असफलता में हुई है.
धोनी-द अनटोल्ड स्टोरी को मैं इस विषय से अलग रखना चाहूंगा. धोनी नीरज पांडे का ‘मास्टरपीस’ माना जाएगा लेकिन ये उनकी चिर-परिचित अपराध-आतंकवाद पर आधारित फिल्मों से अलग रही है. नाम शबाना को दर्शक नहीं मिल रहे हैं तो उसका कारण फ़िल्म के निर्देशक शिवम नायर और नीरज पांडे की झोल पटकथा है. फ़िल्म की समीक्षाएं अच्छी नहीं आई तो इसका मतलब ये नहीं कि फ़िल्म समीक्षक नारी सशक्तिकरण के खिलाफ हैं. फ़िल्म सैद्धांतिक रूप से ही बुरी थी. आइये जाने फ़िल्म क्यों पिटी
1-तापसी पन्नू के किरदार के अलावा किसी और किरदार की ‘कैरेक्टर बिल्डिंग’ पर कोई काम नहीं किया गया.
2-ऐसी कौनसी ख़ुफ़िया एजेंसी है जो किसी बच्ची में इस कारण से संभावनाएं खोजती हैं क्योंकि उसने अपने पिता का खून कर दिया है. स्क्रीनप्ले की अहम् गलती.
3-अक्षय कुमार, डैनी, अनुपम खेर जैसे अभिनेताओं से निर्देशक काम नहीं ले सके. मनोज वाजपेयी कभी अपने किरदार में थे ही नहीं.
4-क्लाइमेक्स बेदम है और जल्दबाज़ी में निपटाया गया है जबकि नीरज पांडे की फ़िल्म खास तौर से उनके हिला देने वाले क्लाइमेक्स के लिए ही देखी जाती है.
5- सिर्फ ताइक्वांडो और एक खून करने के आधार पर देश की सीक्रेट सर्विस में नौकरी मिल जाना क्या आपके गले उतरेगा.
भले ही नीरज पांडे ने इस फ़िल्म का निर्देशन न किया हो लेकिन फ़िल्म की नाकामी का कारण उन्ही का लिखा लचर स्क्रीनप्ले रहा है. इस बार उन्होंने ‘स्पेशल 26’ को ‘मिशन इम्पॉसिबल फ़ोर्स’ बनाने की कोशिश में एक अच्छी कहानी को मार दिया. अक्षय कुमार जब 30 सेकण्ड में 10 हथियारबंद लोगों को धूल चटा देते हैं तो यकीन पुख्ता हो जाता है कि ये नीरज पांडे का ‘सिनेमा’ नहीं हो सकता.