आज का मनुष्य सुबह आँख खुलते से ही भागने लगता है. जल्दी से जल्दी सारे काम निपटा लेना चाहता है, उसे दिन के 24 घंटे भी कम पड़ते हैं, उसे यदि एक दिन के 48 घंटे मिलेंगे तो उसे वो भी कम पड़ेंगे. कारण, जीवन को जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक भोग लेने की तत्परता.
उसे पता है उसका जीवन 65 से 70 वर्ष के बीच का है. यहाँ तक कि WHO के 2016 के आंकड़ों के हिसाब से एक भारतीय की औसत आयु 68.3 है. जिसमें से 40 साल तो पढ़ाई, लिखाई, प्रेम प्रसंग, विवाह और करियर बनाने में निकल जाते हैं. हाथ में बचते हैं मुश्किल से 30-35 साल. अब इन 35 सालों को अधिक से अधिक कैसे भोग लिया जाए इसके लिए आदमी दिन रात दौड़ता रहता है.
क्या आप जानते हैं प्राचीन काल में ये भागदौड़ क्यों नहीं थी. सबसे पहली बात तो सुख सुविधाओं और मनोरंजन के नाम पर आलस्य फैलाने वाले आधुनिक उपकरण नहीं थे. दूसरा उनका खान पान रहन सहन और अध्ययन ऐसा था कि वो आराम से एक शतक तो पूरा कर ही लेते थे. अब सौ साल के जीवन में जहां उसे ना पैसों की चिंता न करियर की, रोज़ मेहनत करना है और रोज़ खाना है. तो उम्र तो लम्बी होना ही थी.
लेकिन उनकी दिनचर्या के अलावा उनके पास जो महत्वपूर्ण खज़ाना था वो था प्रकृति का सानिध्य. तब के ऋषि मुनि वास्तविक तपस्वी थे, उनकी पूजा आराधना सबकुछ प्रकृति के रहस्यों को जानने और मानव कल्याण के लिए उनका अधिकतम उपयोग करने में ही व्यतीत होता था. इसलिए कहा जाता है एक ज्योतिषी भले आयुर्वेद का ज्ञाता न हो लेकिन एक आयुर्वेद ज्ञाता को ज्योतिष ज्ञान बहुत आवश्यक है, और हमारे ऋषि मुनि इन दोनों में पारंगत थे.
ऐसे में ऐसे कई ऋषि और आयुर्वेद ज्ञाता हुए हैं, जिनके पास दीर्घ आयु के रहस्य थे. वो खुद कई सौ साल तक जीवित रहते थे. कहते हैं चरक के पास जड़ी बूटियाँ स्वयं आकर परिचय दे जाती थीं. बदलते समय के साथ और अंधाधुंध आधुनिकरण के चलते न केवल जंगल के जंगल नष्ट हुए बल्कि साथ में नष्ट हो गयी हमारी सदियों की विरासत.
लेकिन जो कुछ भी सहेजा जा सका वो आज भी दूर दराज के उन गाँवों में और जंगलों में सुरक्षित है जहां मानव का बनाया कंक्रीट जंगल नहीं पहुँच पाया है. ऐसा ही एक गाँव है पहासू जो शिमला से आगे लगभग दो सौ किलोमीटर दूर है. इस गाँव के लगभग सभी दीर्घायु प्राप्त हैं. बहुत ही कम ऐसे होंगे जिनकी मृत्यु सौ वर्ष पूरे करने के पहले हो गयी हो. कारण है उनके पास एक ऐसी जड़ी बूटी है जिनका न केवल वो सेवन करते हैं बल्कि उसे देवता की तरह पूजते हैं.
जैसा कि मैं हमेशा कहती हूँ जब तक आपकी “जादू” पर आस्था होगी तब तक ही “जादू” घटित होगा. संशय की नज़र में अमृत भी ज़हर हो जाता है. तो इस गाँव में एक वैद्य रहा करते थे नाम था रामसुख शर्मा, जिन्होंने पहली बार इसका रहस्योद्घाटन किया था कि इस जड़ी का नाम “मयूर कन्द ” है, और इस मयूर कन्द का उपयोग कर एक औषधि बनाई जाती है जो मनुष्य को दीर्घायु बनाती है.
जिस समय उन्होंने यह रहस्योद्घाटन किया था तब वे स्वयं 136 वर्ष के थे. और वे इसे पूरे गाँव में नि:शुल्क बांटा करते थे, क्योंकि उनके परिवार में यह परम्परा सदियों से चली आ रही थी. और सदियों से चली आ रही परम्परा को अंधविश्वास कहकर ठुकरा देने वाले आधुनिक ही बाद में वैज्ञानिक बनकर दोबारा उन रहस्यों की खोज में निकल पड़ते हैं.
वैद्य रामसुख शर्मा के बारे में जिस पुस्तक में वर्णन दिया गया है वो पुस्तक 1987 की प्रकाशित की हुई है. इसलिए मैं नहीं बता सकती कि वैद्य रामसुख शर्मा की अभी आयु कितनी होगी या वे अभी तक हमारे बीच हैं भी या नहीं.
हाँ उनके अनुसार उस गाँव के लोग आज भी उस जड़ी का उपयोग करते हैं, और कई पीढ़ियों से श्रावण के पहले सोमवार इस पौधे की पूजा करते आ रहे हैं. हर वार त्यौहार के अलावा विवाह में भी इसकी पत्तियों का सेवन करने की परंपरा उस गाँव में हैं.
वैद्य रामसुख शर्मा के अनुसार दीर्घायु प्रदान करने वाला यह संसार का एक मात्र पौधा इसलिए बचा रह गया क्योंकि इस पौधे को उगाना यहाँ के लोगों का धार्मिक कार्य है और इसे काटना वो पाप समझते हैं.
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