प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन मास में हम नवरात्र में अष्टमी या नवमी को दो से आठ या दस वर्ष तक की कन्याओं का पूजन करते हैं
कन्या को आसन पर बिठा कर साक्षात देवी मानकर फूल, चन्दन, वस्त्र आदि से भक्तिपूर्वक आखिर क्यों पूजते हैं?
धार्मिक मान्यता है कि पृथ्वी के सभी पुरुष पुराण-पुरुष के प्रतिनिधि हैं और “स्त्रियः समस्तास्त्व देवी ! भेदाः ” अर्थात् समस्त नारी महामाया की प्रतिकृति है.
और “नाग्निका “( ऐसी कन्या जिसे वस्त्रों से अपने अंगों को ढाँकने का अभी बोध नहीं हुआ हो ) निर्विकार होती है इसलिए दुर्गा स्वरूप में पूजने योग्य है.
हमारा कोई भी धार्मिक काम ऐसा नहीं है जिसका वैज्ञानिक महत्त्व न हो या सामाजिक समस्याओं के समाधान का उद्देश्य नहीं हो.
शास्त्रों में कन्या पूजन करने वाले को ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से ब्राह्मण कन्या का पूजन, बलप्राप्ति के लिए क्षत्रिय कन्या का, धन प्राप्ति के लिए वैश्य कन्या का और शत्रु-विजय एवं तंत्र-मंत्र की सिद्धि के लिए शुद्र कन्या का पूजन करने के लिए कहा गया है.
इससे चारों वर्णों के बीच परस्पर आदान-प्रदान का द्वार खुला रहने की सनातन परंपरा की पुष्टि होती है और वामपंथियों के झूठे मनगढ़ंत आरोप भी गलत सिद्ध होते हैं. हमारे पूर्वज अपने आपको जगदम्बा के एक समान पुत्र मान कर आपस में पूज्य और पूजक की भावना रखते थे.
अभी तो नहीं पर पहले कन्या पूजक मन्त्रों से कन्या की स्तुति भी करते थे. जिसमें “जगद्धात्री जगदम्बा किवां माता ” कहा जाता था.
घर के सबसे बुजुर्ग सदस्य सबसे पहले कन्या पूजन करते थे. अपनी पौत्री के उम्र की कन्याओं को माता कह कर पूजा करना अटपटा सा लगता है पर गहराई से विचार करेंगे तो इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य दिखाई देगा.
यदि हमारे दादाजी किसी को बहुत सम्मान देते हों, उसको प्रणाम करते हों और वह व्यक्ति कहीं हमें मिले तो हम भी उनको सम्मान देते ही हैं.
अपने अड़ोस-पड़ोस और मोहल्ले की जिन कन्याओं का दादाजी, पिताजी माता कह कर पूजा करें, प्रणाम करें, उनके साथ-साथ पूरा परिवार भी यही काम करता था.
उन दिनों सिनेमा, सीरियल और टीवी विज्ञापन नहीं थे इसलिए समाज में नैतिक मूल्य बचे हुए थे फिर भी यदि किसी के मन में विकार आए तो एक बार मन में विचार तो आएगा ही कि जिस कन्या की पूजा पिता और दादाजी ने वर्षों तक की है उस कन्या को माता कहा है, उसके प्रति दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए. ऐसा विचार आते ही विकार दूर भाग जाएगा. यही कारण था पौत्री समान कन्याओं को भी माता का संबोधन देने का.
अत्याधुनिकों का अतिप्रिय एक प्रश्न होता है कि कन्या पूजन करने का क्या लाभ है. शायद लाभ अब समझ में आ जाए.
नवरात्रों में कन्या पूजन का वैदिक विधान आज भले ही सिर्फ परंपरा को निभा देने वाला एक रस्म बन गया है पर हमारे पूर्वजों के लिए प्राकृतिक धर्मानुष्ठान, मानव संगठन और चारित्र्य संरक्षण का एक अभियान भी था, जिसका हमको ज्ञान नहीं है.
यदि इस भाव की हम फिर से परिवार में स्थापित कर सकें तो विश्वास करें, एंटी रोमियो स्क्वाड की जरुरत कभी नहीं पड़ेगी.
संकल्प करें कि कम से कम अपने बच्चे को कन्या पूजन और कन्या को माता जैसा सम्मान देना जरूर सिखाएंगे. इस विधान का मज़ाक उड़ाने से रोकेंगे तभी पूजा सफल होगी.