पांच साल बाद यही पूछेंगे, ये प्रदूषण कम क्यों नहीं हो रहा?

आइये कुछ सच से परिचय किया जाए …

15 अगस्त 2015 को अंग्रेज़ो से भारत की आज़ाद हुए 68 वर्ष बीत चुके थे. आज़ादी की 69वें वर्षगांठ के दिन देश के प्रधानमंत्री को भाषण में भारत की जनता को टॉयलेट में शौच करने और कूड़ा न फेंकने को मुख्य मुद्दे के रूप लाना पड़ा.

इतने वर्षों तक कूड़ा करकट में जीने के आदी हो चुके लोगों को ये एक क्रान्तिकारी भाषण लगा. इसके दो वर्ष बीतने के बाद सड़क पर पेशाब करते हुए, घर की बालकनी से नचा के कूड़ा भरा पॉलिथीन फेंकते हुए, ट्रेन के सिंक में मसाला थूकते हुए और गाड़ी से बाहर कोक की कैन और चिप्स की पन्नी फेंकते हुए बोलते हैं कि मोदी के स्वच्छ भारत अभियान में कुछ हो नहीं रहा है…

दरअसल हम भारतीय निहायत उजड्ड, झगड़ालू, बदतमीज़, गंदे और बेकार का ईगो पाले चरम टाइप के “परम” लोग हैं… बनारस में परम एक स्पेशल शब्द है.

भारतीय जब कहीं घूमने जाते हैं तो सबसे उजड्ड और शोर मचाते हुए लोग होते हैं. कोई भारतीय ही पेरिस में आइफेल टावर के ऊपर जा के “रविन्द्र पाल, लवली पाल – चीकू और चीनू” की कलाकृति उकेर सकता है.

हॉन्ग-कॉन्ग और मकाउ में भारतीय यात्री सबसे जाहिल और उजड्ड के रूप में विख्यात हैं. बैंकाक में सस्ता सेक्स खोजने और निगोशिएट करने वाले सबसे ज्यादे भारतीय हैं ये भी उधर मशहूर है…

सड़क पर चलने में सबसे ज्यादा बदतमीज़ हम भारतीय हैं. न लाइन की तमीज़, न किसी अन्य की तकलीफ से मतलब. मालूम ही नहीं कि लाइन में रहकर क्लच, एक्सेलरेटर और ब्रेक के तमीज से इस्तेमाल पर गाड़ी चलती है न कि हॉर्न पर चढ़े रहने से.

1996 में भयंकर गृह युद्ध में फंसे नन्हे से श्रीलंका के लोगों का सड़क पर अनुशासन हैरान करने वाला था.

सुप्रीम कोर्ट ने BS-3 गाड़ियों पर बैन लगा दिया, प्रदूषण पर अंकुश लगाने को. कंपनियां डेढ़ सयानी निकली. सेल लगा दिया 70 की मोटर साइकिल 50 में ले जाइए और 60 की 30 में.

लोग भी ढ़ाई सयाने निकले. लाइन में लग के गाड़ियाँ ख़रीद लीं, जानते हुए भी कि BS-3 गाड़ियों को क्यों बैन किया जा रहा है.

पर अपन को उससे क्या? रस्ते का माल सस्ते में मिल रहा है, लेने से मतलब. पर्यावरण जाए भाड़ में.

यही लोग पांच साल बाद बढ़ते प्रदूषण पर ज्ञान की गंगा बहाएंगे. अव्वल तो ऐसा होता नहीं, फिर भी एकबारगी मान लें कि यही ऑफर अगर जर्मनी या जापान में दिया गया होता तो खरीदने वाले ढूंढने से नहीं मिलते.

लेकिन भारत में उल्टा हो रहा है. हम भारतीय हुडुक चुल्लुओं की अपरम्पार भीड़ लगी रही, कम्पनियां आराम से अपनी लागत निकाल ले गईं.

कोई भी देश अपने आप महान नहीं बनता, उसको महान बनाना पड़ता है और महान बनाने वाले होते हैं उसके नागरिक.

जर्मनी और जापान ऐसे ही न बन गए. उनको महान बनाया उनके नागरिकों ने और हमारे देश के नागरिक क्या कर रहे हैं? जानबूझकर जहर खरीद रहे हैं, अपने ही शहरों को गैस चेम्बर बनाने में लगे हैं.

ये जानते हुए भी कि BS-3 जहर फेंकेगी. पर सबकी एक ही सोच….. अब फेंकती है तो फेंकती रहे पर अपनी तशरीफ़ के नीचे तो तीस हज़ार रुपल्ली की सस्ती मोटर साईकल आ जानी चाहिए, पर्यावरण की हिफाज़त करेगा अपना पड़ोसी, अपन क्यों दिमाग पर लोड लें?

बनारस क्योटो क्यों नहीं बन रहा, पूछने वाले पांच साल बाद पूछेंगे, भाई ये प्रदूषण कम क्यों नहीं हो रहा?

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