आजकल टीम वर्क की बहुत बात होती है, कोई टीम लीडर अपने टीम के सदस्यों को कैसे प्रेरित कर सकता है, कैसे उनकी प्रतिभा का अधिकतम उपयोग कर सकता है, कैसे उसके गुणों और विशेषताओं को उभार सकता है, कैसे अपने से ऊपर के अधिकारियों को भी यथायोग्य मान-सम्मान देते हुए अपने नीचे वाले को भी वैसा ही सीखा सकता है, इन सब बातों की आज बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती है. अब्दुल कलाम, रतन टाटा जैसे सफल व्यक्तियों के जीवन से उदाहरण देकर टीम-लीडरशीप का वैसा ही गुण विकसित करने की प्रेरणा दी जाती है.
अगर हम अकेले भगवान राम के जीवन चरित का अनुगमन करें तो हमें न तो ऐसी किसी ट्रेनिंग की आवश्यकता होगी, न ही कहीं और से उदाहरण ढूँढने होंगें. राम का व्यक्तित्व इन मायनों में भी सर्वोपरि है कि एक कुशल प्रबंधक, एक टीम-लीडर और सबके लिये सम्मान की उनकी सामूहिक विशेषता का दर्शन हर क्षण होता था.
अपने जीवन में जहाँ उन्होंने अपने से छोटों को मान दिया, उन्हें प्रेरित किया, वहीं अपने सहयोगियों के साथ समादर और गुरुजनों तथा वरिष्ठों के लिये आदर का भाव रखा.जब लंका विजय हुई तो विजय के उपलक्ष्य में प्रभु ने सब वानर-भालुओं को बुलाया, उनसे प्रेम से बात की और कहा, ये विजय मेरी नहीं है, न ही रावण वध अकेले मेरे बल का परिणाम था बल्कि ये विजय आप सबके बल से प्राप्त हुआ है और आज तीनों लोक आप सबका यशोगान गा रहा है.
अपने इन सहयोगियों के प्रति राम ने तब भी आभार प्रकट करते हुए उन्हें विजय का श्रेय दिया था जब वो चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, अपने कुल गुरु वशिष्ठ से सबका परिचय कराते हुए राम ने कहा था, गुरुवर! ये सब मेरे वो मित्र हैं जिन्होनें मेरे लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, ये सब मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं.
लंकाकाण्ड में आता है कि जब विभीषण के राज्याभिषेक की बात हो रही थी तब राम ने विभीषण के लंका चलने के अनुरोध को ये कहते हुए ठुकरा दिया था कि मैं पिता की आज्ञानुसार चौदह वर्ष पूर्व नगर में नहीं जा सकता पर आपके राज्याभिषेक के लिये मैं “अपने समान” सब वानरों को भेजता हूँ. राम ने वानरों को अपने समान बताया.
राम से अधिक समाजवादी कोई दुनिया के किसी किताब, किसी वृत से, किसी इतिहास ग्रन्थ से निकाल कर दिखा दे. अपने सहयोगियों के प्रति राम मालिक और सेवक का भाव नहीं रखते थे, बल्कि सबके गुणों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते थे. कुछ नीच बुद्धि कहते हैं कि हनुमान के प्रति राम का व्यवहार मालिक और सेवक का था और चूँकि सेवक ने मालिक का काम किया इसलिये राम ने उनकी प्रशंसा की होगी पर इन निर्बुद्धियों ने ठीक से रामायण नहीं पढ़ी.
राम की नज़र में हनुमान सेवक नहीं थे, राम ने कई बार हनुमान को अपना पुत्र बताया है. वो हनुमान से कहतें हैं, “सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं” यानि हे पुत्र! सुन मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता.
ये आरोप भी गलत है कि चूँकि हनुमान ने उनका काम किया था इसलिये राम उनकी प्रशंसा करते थे. किष्किंधा में जब राम और हनुमान की पहली भेंट हुई थी तब राम ने हनुमान के बारे में लक्ष्मण से जो कहा वो स्पष्ट बताता है कि राम हनुमान का कितना आदर करते थे. राम हनुमान के पांडित्य, वार्तालाप की शैली और उनके शब्द और भाव संप्रेषण की कला से अभिभूत थे.
चित्रकूट में अपने अनुज भरत को राज्य-संचालन की शिक्षा देते समय राम उनसे कहतें हैं, हमारे पिता के असमय निधन के पश्चात् भी अगर अयोध्या बनी रही है तो उसका समस्त श्रेय हमारे गुरुजनों को जाता है, अतः हे भरत ! राज्य का संचालन सदैव गुरुजनों और वशिष्ठजनों के आदेश पर ही करना क्योंकि अगर इनकी कृपा रही तो हमें स्वप्न में भी क्लेश नहीं हो सकता.
सुमंत राम के पिता दशरथ के मंत्री थे पर उनके प्रति भी राम का व्यवहार पितातुल्य ही था. राम सुमंत से कहतें हैं, “तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरे, बिनती करऊँ तात कर जोरे” अर्थात हे तात! आप भी पिता के समान ही मेरे हितैषी हैं इसलिये मैं आपसे हाथ जोड़कर विनती करता हूँ. ऐसा ही सम्मान भाव उनका अपने पिता के मित्रों के प्रति और गुरुओं के लिये भी था. जटायु को उन्होंने अपने पिता तुल्य माना.
जब वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो अपने गुरु वशिष्ठ के चरणों में प्रणाम करते हुए अपने मित्रों से कहा कि ये हमारे कुल के पूज्य है और इनकी कृपा से ही हमने युद्ध में सब राक्षसों को मारा है. केकेयी के चलते उन्हें वनवास मिला था पर भरत-मिलाप के प्रसंग में कई बार ये आता है कि उन्होंने सबसे यही कहा, मेरी सब माताओं का ख्याल रखना.
राम का पावन चरित कार्यक्षेत्र से लेकर घर-परिवार, समाज और राष्ट्रजीवन के लिये मैनेजमेंट की सर्वश्रेष्ठ किताब है. राम-चरित का अनुगमन करेंगे तो अपने आस-पास, अपने घर-परिवार और अपने कार्यक्षेत्र में हो रहे सहज परिवर्तनों को स्वयं महसूस करेंगे.
!!जय श्रीराम!! !!जय श्रीराम!! !!जय जय श्रीराम!!