तीन तलाक : भेड़िए को शाकाहारी बनाना अधिक आसान होगा

हलाला पर बहुत इमोशनल होने की जरुरत नहीं. कितने तलाक में होता है हलाला? क्या आप को लगता है कि हर तलाक का मसला हलाला से हल होता है? जिस तरह से गैर मुस्लिम लोग हलाला पर ज़ार-ज़ार रो रहे हैं, लगता है शायद उनको यही गलतफहमी है.

असली समस्या तीन तलाक की ही है. जिस आसानी से मर्द तलाक दे कर अपनी जिम्मेदारी झटक सकता है, समस्या यह है.

दिल्ली में इन्द्रेश कुमार जी की एक सभा में गया था जहाँ एक मुस्लिमा ने लगभग रोते हुए फ़रियाद रखी कि निकाह के वक़्त लड़की व्यावहारिक नहीं होती, प्यार के सपनों में खोई होती है, उस वक़्त उस से मेहर माफ़ भी करवाई जाती है या मामूली रकम पर रजामंदी ली जाती है. ऐसे में अगर तलाक हो जाता है तो शौहर पर इस्लामिक कानून से कोई दबाव नहीं डाला जा सकता ढंग का मेंटेनन्स देने के लिए.

शौहर का घर अच्छा है कमाई अच्छी है तो वहां भी लाखों की मेहर नहीं होती, अक्सर बड़ी मेहर मांगना भी बुरा माना जाता है, माँ बाप भी लड़की के हाथ पीले करने के चक्कर में होते हैं, बड़ी मेहर के लिए अड़ नहीं जाते.

महिला को निकाह के बाद नौकरी करने दी जायेगी या नहीं यह भी शौहर की मर्जी पर होता है, अल्लाह के बाद शौहर का ही हुक्म मानना होता है. याने बीवी की आर्थिक स्वतंत्रता का निर्णय भी शौहर के हाथों में होता है.

नतीजा ये होता है कि महिला जिन्दगी भर तलाक के डर में जीती है क्योंकि शौहर को उसे तलाक देने की आजादी होती है. यह भी जान लीजिये कि वो एक माँ भी बन जाती है और अगर शौहर पर तादाद बढाने का जूनून सवार है (कोई मौलवी यह नहीं कहेगा कि उतने ही बच्चे पैदा कीजिये जितनों को आप अच्छी परवरिश दे सको, यह फैसला मियां बीवी ही कर सकते हैं) तो उतने बच्चों की जिम्मेदारी भी सर पर आ जाती है.

दुबारा शादी कर भी लेगी तो भी डर यह रहता ही है कि नया शौहर बच्चों से कैसा व्यवहार करेगा, उसके भी बच्चे अगर हैं (रख सकता है, रखते भी हैं, अपना नाम चलाने अपनी औलाद चाहिए होती है; और हाँ, एक बाप का प्यार भी होता है औलाद से) तो उन बच्चों के साथ मेरे बच्चों की कैसी पटेगी, इतने बच्चों की जिम्मेदारी उठाने कोई तैयार होगा या नहीं, याने दूसरी शादी होगी या नहीं, कितनी टिकेगी – ढेर सारे सवाल मुंह बाए खड़े हो जाते हैं जिनकी गैर मुस्लिमों को कल्पना भी नहीं होती.

शौहर अगर बच्चों को साथ रखे तो औलाद से जुदाई भी एक डर होता है जो एक माँ ही बेहतर समझ सकती है. और हाँ, आर्थिक भविष्य के मामले में अन्धेरा ही नजर आता है, उस बड़े डर को कैसे भूल सकते हैं ?

इन्द्रेश कुमार जी की सभा में फ़रियाद रखनेवाली महिला का सुझाव था कि निकाह के वक़्त ही एक तगड़ी रकम हक ए मेहर के नाम से महिला के नाम फिक्स्ड डिपॉज़िट में रखी जाए क्योंकि अगर वो उसके खाते में डाली जायेगी तो कब खर्च हो जायेगी पता भी नहीं चलेगा.

मजे की बात यह है कि वहां इस बात का स्वागत 25:75 के अनुपात में हुआ जब कि जो भी सहमति होती उससे कोई कानून तो नहीं बनता. विरोध में एक खातून भी थी जिसे अल्लाह की बनाई हुई व्यवस्था में इंसान की दखलंदाजी से एतराज था. उसका मानना सही था या गलत, इस पर मुझे कुछ नहीं कहना, बस उसका नजरिया आप से साझा कर रहा हूँ.

समझ गए होंगे आप कि असली डर तलाक का है, हलाला का नहीं. क्योंकि तलाक के बाद अगर मियां बीवी की मर्जी हो, पति को अगर वाकई लगता है कि उससे गलती हो गई और यही हमसफ़र चाहिए जिन्दगी के सफ़र के लिए और बीवी भी उसको चाहती है और उसकी यह गलती माफ़ करने को राजी है – तो ही हलाला की बात होगी अन्यथा नहीं. बहुत कम होता है हलाला तलाक के बनिस्बत.

हाँ, हलाला की रस्म जो है वो स्त्री के लिए अपमानकारक है इससे सहमत हूँ, पति को भी अपनी गलती का एहसास जिंदगी भर होता रहेगा इससे भी सहमत हूँ.

फिर भी, समस्या हलाला की नहीं, समस्या तलाक की आसानी की है. मुस्लिम महिलाओं का असली दर्द यही है जिसे गैर मुस्लिम कम समझ रहे हैं, और हलाला को मजाक बना कर मजे ले रहे हैं.

दुःख तब होता है जब खवातीन कुरआन की रोशनी की बात करती हैं, इस्लाम के दायरे में ही समाधान ढूँढने की पेशकश करती हैं. क्योंकि असल में समस्या उलेमा या मुसलमान नहीं है. उलेमा भी शादीशुदा होते हैं, बच्चे उनके भी होते हैं और बाप का दिल उनके सीनों में भी धड़कता है.

किसी बहन के भाई भी होते ही हैं. बहन बेटी पर तलाक की नौबत आये तो तकलीफ उनके भी दिल को होती है लेकिन वे इस्लाम के सामने मजबूर हैं. इसलिए समझ लीजिये कि अगर इस्लाम में अगर इसका जायज हल होता तो अब तक निकाला जा चुका होता.

तीन तलाक को ख़त्म करने के राह में रोड़ा उलेमा या मुसलमान नहीं है, इस्लाम ही है. भेड़िए को शाकाहारी बनाना अधिक आसान होगा.

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