आसान नहीं था इतनी भीड़ में
अपने आप को खोजना
पर मैं निकल ही पड़ा
पहचान के लिए
कितनी कम चीज़ें थी मेरे पास
बचपन की कुछ स्मृतियाँ थीं
तुलसी के बड़े से झाड़ के नीचे से
नानी के गोपाल जी को चुराकर
जेब में ठूँसता एक बच्चा
चिड़िया के घौंसले से
उसके बच्चों को निकाल कर
आटे का घोल पिलाता एक शैतान
जिस पर माँ चिल्लाती थी –
अब चिड़िया नहीं सहेजेगी इन बच्चों को
मर गए तो पाप चढ़ेगा तेरे सिर पर
मैथमैटिक्स की क्लास में
अक्सर मिले सिफर को
हैरानी से देखता एक विद्यार्थी
जिसे बहुत बाद में पता चला कि वह तो
आर्यभट्ट का वंशज है
एक पगला नौजवान
जिसे देखते ही
हर लड़की से प्यार हो जाता था
जिसकी डायरी में लिखी थीं वे सब कविताएं
जो वह उन्हें कभी सुना ही नहीं पाया
एक ज़िद्दी अधैर्यवान पुरुष
जिसके लिए पत्नी और बच्चे
किसी फिल्म के किरदार थे
जिन्हें करनी थी एक्टिंग
उसे डायरेक्टर मान कर
एक बेहद कमज़ोर पिता
जो हार कर रोने बैठ जाता था
स्मृतियों का पिटारा खोले
किसी अँधेरे कोने में
जिस में सिर्फ और सिर्फ
होती थीं उसकी बेटियाँ
साँझ तक भटकने के बाद
इस महानगर में
मुझे मिला एक आदमी
कुछ वैसा ही संदिग्ध
चमड़े का थैला और कैमरा लटकाए
खुद से बतियाता हुआ आत्म-मुग्ध
गंगा में पाँव लटकाए हुए
वह देख रहा था आसमान में उड़ते
चिड़ियों के झुंड को
हावड़ा ब्रिज पर उतरती साँझ को
और डूबते हुए सूरज को
उसे पहचानते हुए मुझे लगा
आज ज़िंदगी का एक साल और कम हो गया
आसान नहीं था
यूँ अपने आप को खोजना।