क्रिकेट देखते ही क्यों हो?
इतने ही शौकीन हो तो खुद खेलो.
देश, राज्य और शहर की टीम के लायक नहीं हो तो अपने मोहल्ले या कॉलोनी की टीम बना कर खेलो.
रोजी-रोटी के चक्कर में रोज़ नहीं खेल सकते तो साप्ताहिक अवकाश में खेलो, घर के बच्चों के साथ खेलो, ना हों तो अड़ोस-पड़ोस के बच्चों के साथ खेलो. वो भी तुम्हें इस लायक ना समझे तो क्रिकेट खेलने के लिए नाकारा हो चुके उनके बाप-चाचा के साथ खेलो.
क्रिकेट के लिए जज्बा सिर्फ सोफे पर पसर कर बहन/ बीवी से थोड़ी-थोड़ी देर में चाय और चबेना की फरमाइश करते हुए टीवी देखने तक ही सीमित क्यों है तुम्हारा.
कभी महसूस किया है 22 गज की दूरी से अपनी ओर फेंकी गई गेंद को? कभी खुद फेंकी है पूरी ताक़त से गेंद जो न सिर्फ दूसरे छोर तक पहुंचे बल्कि बल्लेबाज़ को आतंकित भी कर दे?
बाज़ार की ताक़त के चंगुल में फंसे हुए निखट्टूओं, तुम वही कर रहे हो जो ये बाज़ार चाहता है. खुद को आज़ाद कहने वाले खाम-ख्यालियों, तुम्हें पता ही नहीं है कि आज़ादी के सिर्फ नारे परोसे जा रहे हैं तुम्हें, ताकि तुम्हे अपनी गुलामी का एहसास भी न हो सके.
हर बात में षडयंत्र सूंघने वालों, पता नहीं क्यों अब तक तुमने अनुष्का को किसी विदेशी टीम का एजेंट नहीं बताया? अरे, जब कल्पनाएँ ही करना है तो वो ही ज़रा ढंग से कर लो. पर नहीं, उसके लिए सृजनशीलता की ज़रुरत होती है.
निखट्टू और किसे कहते हैं.
तुम खेलते नहीं, तुम नाचते नहीं-गाते नहीं, किसी ललित कला से कोई वास्ता नहीं और खुद को इंसान कहते हो. कहाँ से मिल गई वो विशेषज्ञता जो आलोचना करने का अधिकार दे देती है.
ओशो उवाच: अब तुम्हें कुछ करने की ज़रुरत ही महसूस ही नहीं होती… यहाँ तक कि तुमने अपने भगवान की पूजा करने के लिए भी नौकर रख लिया है. यह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब तुम अपनी पत्नी या प्रेमिका को प्यार करवाने के लिए भी नौकर रख लोगे.