एक फूल उग आया स्त्री की नाभि में, जिस पर बैठे चारों दिशाओं में देखते अपने पुरुष की आँखों में आए भाव को पढ़ते हुए संचालित होता उसका जीवन. जब कभी स्त्री की नज़र हट जाती, नाभि में उगा फूल मुरझा जाता और उसका पुरुष गिर पड़ता है उसकी जंघाओं के बीच अपने स्वामित्व की पहाड़ियों का इकलौता योगी होने का दंभ भरता हुआ…
अपनी ही आँखों की कोटरियों की गुफा में धंसती हुई वो प्राप्त कर लेती है निर्वाण की वो दशा जहां न सुख का पता चलता है ना दुःख का…. बस कुछ दृश्य उसकी आँखों के सामने से गुजरते हैं विज़न की तरह जिसे वो जीवन समझकर भोगे चली जाती है….
और फिर एक दिन पाती है गुफा में उग आई है कई सारी नाभियाँ मुरझाए फूल की लटकती डालियाँ लिए, एक दूसरे की आँखों में एक जैसे दृश्यों को खोजती हुई थाम लेती है हाथ…..
गुफा के बाहर की दुनिया का सूर्य उनके लिए अजनबी है फिर भी रात के घने अँधेरे में कोई परछाई आती है और उनका अन्धेरा भी छीन कर ले जाती है….
सारी स्त्रियाँ चुप है लेकिन एक दूसरे की आँखों में पढ़ लेती है वो रहस्य कि उनकी गुफाओं के अँधेरे भी उनकी नाभि पर लटकती फूल की डालियों से बंधे हैं…
उनमें से कोई स्त्री हिम्मत दिखाती है, आँखें बंद कर नाभि से निकालती है ओम की आवाज़ और लटकती मुरझाई डाली को बाहर से पेट के अन्दर समेट लेती है….
धंसी आँखों की गुफाएं रोशन हो जाती है… सारी स्त्रियाँ ज़ोर से हुंकारा भरती है…. अहम् ब्रह्मास्मि….
गुफा के बाहर से शंख की आवाज़ आती है….. और एक प्रकाश का गोला स्त्री के गर्भ में छुप जाता है….
नौ जन्मों सी पीड़ा के बाद उन्हीं जंघाओं के बीच से निकलता है उसका पुरुष….
सारी स्त्रियाँ चुप है… एक दूसरे की आँखों में कुछ पढ़ने की कोशिश करती हुई गुफा के मुहाने से मुंडियां निकालती हुई झाँक रही है…
आसमान से एक डाली गिरती है जिससे फूल तोड़ तोड़ कर सब अपनी-अपनी नाभि पर रख देती है और अपने पुरुष को बिठा देती है…
आज भी उस पर बैठे चारों दिशाओं में देखते अपने पुरुष की आँखों में आए भाव को पढ़ते हुए संचालित होता उसका जीवन.