हम हिंदुओं की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहा है विश्व

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अगर मैं ऐसा कहता हूँ कि विश्व, हम हिंदुओं की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहा है, तो इसके समर्थन में मेरे पास अनेक व्यवहारिक प्रमाण हैं.

आज विश्व दो अतिवादी धार्मिक विचारधाराओं के बीच फंस गया है. दोनों आज के बड़े धर्म हैं, जिनमें एक अति उच्छृंखलता का हिमायती है तो दूसरा अति कट्टरता का.

अति तो फिर अति है, लंबे समय तक नहीं चल सकती. और फिर इन्हें धर्म कहना भी थोड़ा गलत ही होता है. क्या ये किसी भी “धर्म” की बात करते हैं, जिनमें विश्वधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, राजधर्म से लेकर घर-परिवार में पितृधर्म, मातृधर्म, पुत्र-पुत्री धर्म से लेकर जीवधर्म और सबसे महत्वपूर्ण मानवधर्म आदि आते हैं? नहीं.

इनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत ही ये है कि ये प्रकृतिधर्म से दूर हैं. दोनों प्रकृति के दोहन में विश्वास करते हैं, इनके उपभोग की कोई सीमा नही, वो भी इतनी कि ये प्रकृति को हथियाना चाहते हैं, पूरी दुनिया पर कब्जा चाहते हैं. और सम्पूर्ण मानव समाज पर राज करने की इच्छा रखते हैं. जिसके लिए सिर्फ अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने में लगे रहते हैं.

प्रचार प्रसार वाली इन विचारधाराओं के पास लेकिन जब कोई आ जाता है तो उसे देने के लिए इनके पास कुछ विशेष नहीं. और इन्हें मानने वाले समर्थकों में भटकाव जल्द शुरू हो जाता है. अंत में वो खालीपन के साथ पूरी जिंदगी गुजार देता है या मानसिक रूप से खुद विक्षिप्त हो जाता है या फिर असन्तुलित होकर आतंक फैलाता है.

फलस्वरूप एक के यहां मनोरोग फ़ैल रहा है तो दूसरे के यहां दानवरोग. और दुनिया हलाकान है. ऐसे में आखिर कोई जाए तो जाए कहाँ. एक के पास सवाल के जवाब नहीं तो दूसरे के पास सवाल पूछने की इजाजत ही नहीं. एक अपने विज्ञान पर इतराता है तो दूसरा एक किताब को आँख मूँद कर अंतिम मानता है.

अनंत ब्रह्मांड में जहाँ दो पेड़ दो पक्षी से लेकर दो मानव और दो तारे एक समान नहीं वहाँ किसी विज्ञान या धर्म की एक किताब से जीवन के रहस्य को समझ पाने को क्या कहा जाये उसके लिए शब्द ढूंढ रहा हूँ.

विज्ञान भी क्या है, जो मानव के भौतिक सुख-सुविधाओं को पूरा करने के लिए प्रकृति की व्यवस्था को समझ कर उसके दुरूपयोग का तरीका मात्र बताये. जो मानव के प्राकृतिक दोहन का माध्यम बन गया हो वो आप को और कुछ तो दे सकता है मगर शांति नही.

ऐसे में इस बाज़ारू विज्ञान ने उलटे पूरे विश्व को एक अंधी सुरंग में ढकेल दिया है जिसका कोई उजला छोर नजर नहीं आता. चारों ओर तेजी से फैल रही अराजकता, अव्यवस्था, असन्तोष एक विश्व चिंता बन चुकी है. जिसका फिर इन धर्मो के पास कोई समाधान भी नहीं.

दूसरी ओर हिन्दुत्व में मानव के विकासक्रम के साथ साथ पनपी एक जीवन व्यवस्था है, जहां संस्कार संस्कृति का और संस्कृति सभ्यता का निरन्तर विकास करती है. यह जीवनशैली है जिसमें समय स्थान और आवश्यकतानुसार परिवर्तन होते रहे और हो रहे हैं. सिर्फ जीवन के मूल्यों से समझौता नहीं होता. यह एक जीवन दर्शन है जो प्रकृति से अपने सामंजस्य को बनाये रखता है.

अगर यह कहें कि हिन्दुत्व मूलतः प्रकृतिवादी है तो गलत नहीं होगा. हम प्रकृति को नियंत्रित करने के चक्कर में नहीं रहते बल्कि प्रकृति से नियंत्रित होते हैं, इतना कि हम अपना नव वर्ष भी प्रकृति के हिसाब से मनाते हैं.

हमारे हर त्यौहार-पर्व प्रकृति आधारित हैं. जो जीवन ही प्रकृति से मिला है उसकी अगर सम्पूर्ण व्यवस्था ही प्रकृति द्वारा नियंत्रित हो तो कितना उत्तम होगा. हमारे सारे संस्कार प्रकृति के साथ चलते हैं. हम प्रकृति का दोहन नहीं करते.

हमें उपभोग का संस्कार नहीं दिया जाता. हमारी व्यवस्था में ध्यान और तप की बात तो की जाती है मगर परिवार से सामूहिक पलायन के साथ नहीं, जैसा कि कुछ एक संप्रदाय ऐसा करने की प्रेरणा देते हैं, बल्कि हमारे यहां गृहस्थ भी एक आश्रम है.

हम ना अकेले शस्त्र, ना ही सिर्फ शास्त्र के साथ चलते हैं, हमारे लिए दुर्गा अगर आराध्य हैं तो सरस्वती भी पूज्य है. कर्म प्रधान जीवन है तो हम भाग्योदय पर भी यकीन करते हैं. कण कण में ईश्वर की कल्पना वाले हम सब को अपना मानते हैं और सबको स्वीकार करते हैं और विश्व कल्याण और शांति की बात करते हैं.

आप जिस भी किसी बात की कल्पना कर सकते हैं वो सब के यहां सन्दर्भ मिल जाएंगे और हर बिन्दु पर जहां तक आप की कल्पना जा सकती है उस पर यहां बात की जा सकती है. हम प्रकृति की तरह ही परिवर्तनशील हैं. और किसी भी अति की जगह संतुलन में विश्वास करते हैं.

हमारे पास देने के लिए अध्यात्म है तो दर्शन भी, रहस्यवाद है तो सामान्य जीवन के संस्कार भी. हम इस जन्म के साथ उस जन्म की भी बात करते हैं. हमारी चिन्ताएं चिन्तन तक जाती हैं. हम स्वयं में ब्रह्म की कल्पना करते हैं हमारे पास जीवन के हर सवाल के जवाब हैं और अगर नहीं हैं तो उसे खोजने में विश्वास करते हैं ना कि थोपने में.

हम किसी को परिवर्तित नहीं करते क्योंकि हम तो आदिकाल से हैं और अनेक परिवर्तन के साक्षी हैं. हमारे पास हरि अनंत हरि कथा अनंता की तर्ज पर अनंत ज्ञान की धारा है जो निरंतर है और हमें सनातन परिभाषित करती है.

लेकिन अगर यह सच है तो हमारी जिम्मेवारी बढ़ जाती है. अब हमे अपने नहीं दूसरों के मूल्यांकन में खरा उतरना होगा. हमें विश्व की आकांक्षा को पूरा करना होगा. और उसके लिए हमें अपने अवगुणों को भी देखना होगा जो समय के साथ उत्पन्न हुए हैं.

और यह सम्भव है. हम पूर्व में भी ऐसा करते रहे हैं. दूसरे के घर को सँभालने से पहले अपने घर को व्यवस्थित करना होगा. समय के साथ घर में जो कचरा आ गया है उसे साफ़ करना होगा, अपने खिड़की दरवाजे खोलने होंगे, जालों को साफ़ करना होगा.

हर व्यक्ति में ब्रह्म है, हर ब्रह्म में ब्राह्मण और हर ब्राह्मण में ब्रह्माण्ड है. जो किसी देवालय में नहीं बल्कि हर घर के हर मानव के मन में है. हमें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप में बराबरी से शक्तिशाली बनना होगा. कमजोर कभी नेतृत्व नहीं दे सकता. अपने अध्यात्म की और लौटना होगा, उसके लिए सर्वप्रथम जिस भौतिकता और उपभोगिता में हम डूब चुके हैं उससे पहले निकलना होगा.

हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा. उसे सींच कर मजबूत करना होगा. जीवन के वृक्ष को हराभरा करने के लिए. कही ऐसा ना हो कि हमें आशा भरी निगाह से देख रहा विश्व निराश हो जाए. क्योंकि अगर उसे यहाँ से राहत नहीं मिली तो फिर यह संसार के विनाश का कारण होगा.

हिन्दू नव वर्ष में हम विश्व को नई दिशा दे सकें, जिससे संसार का कल्याण हो और सभी सुख शांति और समृद्धि पा सकें, ऐसी अभिलाषा रखते हैं जगत जननी माँ जगदम्बे से.

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