क्यों नहीं है दक्षिण पंथ का अपना मीडिया – 2

उत्तर प्रदेश विधान सभा निर्वाचन के परिणाम आने के पश्चात मेरे विद्वान् मित्र ने लिखा कि आज अटल जी स्वस्थ होते तो बहुत अच्छा होता.

उनका रेफेरेंस देकर कह रहा हूँ इसके दो कारण हैं. एक तो यह कि हमारी फेसबुकिया मित्र मण्डली में (जिनमें अच्छी आपसी समझ है) केवल उन्होंने ही अटल जी को याद किया.

[क्यों नहीं है दक्षिण पंथ का अपना मीडिया -1]

दूसरे, अटल जी के प्रति यह आदर भाव हर राष्ट्रवादी भाजपा समर्थक के मन में होता है किंतु वह समझ नहीं पाता कि इसे व्यक्त कैसे करें.

जनता जनार्दन सोशल मीडिया पर बहुत करती है तो अटल जी कि फोटो डीपी में लगा लेती है या उनकी पंक्तियाँ “काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ”; “हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन…” यही सब गा बजा के संतुष्ट हो जाती है.

पत्रकारों की बात करें तो अधिकांश लोगों ने अटल जी के निजी जीवन पर ज्यादा फोकस किया है. राजीव शुक्ला (हाँ वही कांग्रेसी) ने एक बार लिखा कि अटल जी ने प्रधानमंत्री निवास के गार्डन में शिवलिंग स्थापित किया था. वे संघ और पार्टी के मध्य समन्वय बना कर रखते थे. सभी से हँसते बोलते थे.

इसी तरह बहुत पहले दैनिक जागरण में छपा था कि उनको बालूशाही बहुत पसन्द थी. जवानी के दिनों में क्लास बंक कर सिनेमा जाया करते थे. कांग्रेस के फलां फलां लोगों से उनके घनिष्ठ मित्रवत् सम्बंध थे. नेहरू ने उनके प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी की थी. अटल जी कोर हार्डलाइनर न होकर सॉफ्ट हिंदुत्व का अप्रोच रखते थे.

चटखारे लेकर यह भी कहा जाता है कि उन्होंने आडवाणी जी को ये नहीं करने दिया, वो नहीं करने दिया. लोगों ने यह भी खोज निकाला कि जब अटल जी ने जन्म लिया तब चर्च में घण्टे घड़ियाल बज रहे थे. इत्यादि…

अर्थात् भारत में पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार पूरे पाँच साल चलाने वाले व्यक्ति की यही उपलब्धियां जनता जानती है कि वो क्या खाते, पहनते और ओढ़ते थे.

नरसिम्हा राव के बाद जिस व्यक्ति ने डगमगाती राजनीतिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान की, राष्ट्रीय सुरक्षा के सैद्धांतिक प्रतिमान स्थापित किये, इस्लामी जिहाद के हमलों से जलते देश को पोटा जैसा कानून दिया, 9/11 के बाद वैश्विक राजनीति में बेहद जटिल कूटनीतिक सम्बल प्रदान किया, जिनके कार्यकाल में राष्ट्रीय शक्ति की अवधारणा जनमानस में बलवती हुई, जीडीपी दर दो अंकों तक पहुँची उस ऋषि के बारे में जनता यही जानती है कि उनको मिठाई में बालूशाही बहुत पसन्द थी. यह कितना हास्यास्पद है!

हाल ही में आई उल्लेख एन पी की पुस्तक Untold Vajpayee भी निराश करती है. मकरन्द परांजपे ने इस पुस्तक की समीक्षा में लिखा है कि उल्लेख एन पी ने अटल जी की जीवनी के साथ पूरा न्याय नहीं किया है.

हालांकि परांजपे के अनुसार एक केंद्रीय मंत्री ने अटल जी की आधिकारिक व प्रामाणिक जीवनी लिखने का आश्वासन दिया है.

मेरा अपना मत है कि किसी की बायोग्राफी लिखने का उद्देश्य केवल उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के विश्लेषण तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये वरन् उसके कृतित्व और कालखण्ड की जितनी हो सके विधिवत समीक्षा होनी चाहिये.

पोखरण विस्फोट, 9/11 के बाद की गयी अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति, कारगिल की लड़ाई से लेकर अटल जी के कार्यकाल के दौरान अपनाई गयीं आर्थिक नीतियां, इन सब विषयों पर थिंक टैंकों में शोध होना चाहिये. पुस्तकें लिखीं जानी चाहिये.

यह देश का दुर्भाग्य है कि 1991 के पश्चात की आर्थिक नीतियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन नहीं हुआ. मार्केट में केवल अटल जी की कविताओं का संग्रह और उनके निजी जीवन पर आधारित पुस्तकें ही उपलब्ध हैं. जब आप अपने इतने वरिष्ठ नेता के कार्यों का डॉक्यूमेंटेशन नहीं कर सकते तो दक्षिणपंथ का नैरेटिव देश में ख़ाक चलाएंगे?

आपको पता है जेएनयू में देश विरोधी नारे लगने के पश्चात रोमिला-हबीबी गैंग ने कितनी पुस्तकें लिख डाली हैं?

राष्ट्रवाद, इतिहास के पुनर्लेखन, कन्हैया कुमार, कथित भक्तों द्वारा फैलाये जा रहे सोशल मीडिया के ट्रॉल्स- इन सब विषयों पर धड़ाधड़ पुस्तकें लिखी गयीं और धड़ल्ले से बिक भी रही हैं.

इनमें सरदेसाई और बरखा सम्मिलित नहीं हैं क्योंकि वे पत्रकार हैं बुद्धिजीवी नहीं. बुद्धिजीवी अपने नाम के आगे प्रोफेसर लिख कर चलता है जिससे उसकी विश्वसनीयता बनती है.

वामपंथी बुद्धिजीवी अपनी कही हर बात का डॉक्यूमेंटेशन करते हैं तब उनका बनाया नैरेटिव देश में चलता है. नेहरू से लेकर सोनिया तक और EPW से लेकर RSTV तक इन्होंने मीडिया के किसी एक अंग को नहीं बल्कि समूचे मास मीडिया तक तगड़ा जाल फैला रखा है.

नरेंद्र मोदी सरकार को गालियां देने के उद्देश्य से बनाई गयी सिद्धार्थ वरदराजन की वेबसाइट द वायर अब हिंदी में भी उपलब्ध है जबकि वरदराजन ने हिंदी में कभी एक लाइन नहीं लिखी है.

द वायर के केवल एक टैब साइंस एंड टेक्नोलॉजी सेक्शन की फंडिंग इनफ़ोसिस वाले नारायणमूर्ति के सुपुत्र करते हैं. किसी ने मुझे बताया था कि स्क्रॉल डॉट इन वेबसाइट तीन दिन में बन गयी थी.

यहाँ पर वरिष्ठ पत्रकार और जाने माने लेखक संदीप देव जी के एक आलेख का उद्धरण देना चाहता हूँ. राघव बहल के ‘द क्विंट’ सहित एक मराठी चैनल पर आरोप है कि उसके रिपोर्टर के फर्जीवाड़े की वजह से एक जवान को आत्महत्या करनी पड़ी थी क्योंकि उस रिपोर्टर ने आपसी बातचीत में जवान का स्टिंग कर लिया था.

इंडिया स्पीक्स डेली में इसी घटना से सम्बंधित एक आलेख में संदीप देव जी ने लिखा: “…आज ‘द क्विंट’, ‘द वायर’, ‘कैच’, जैसे कुकुरमुत्ते अपनी विरोधी विचारधारा की सरकार का विरोध करते करते देश विरोध में संलग्न हैं. आज तो एक ने एक जवान की जान भी ले ली है! भाजपा अपने पक्ष में वेब का एक संजाल खड़ी करे, अन्यथा बराक ओबामा ने चुनाव हारने के बाद जो कहा था उसे याद कर ले! बराक ने कहा था-‘ हमें हराने के लिए वेब का जाल फैलाया गया जो फेसबुक के जरिये फर्जी खबर का लिंक बड़ी तेजी से फैलाते थे.’…”

दक्षिणपंथी मीडिया की कुछ विशेष विषमताएं हैं. सब यही चाहते हैं कि कम बजट में ज्यादा काम हो जाये. उदाहरण के लिए एक प्रतिष्ठित थिंक टैंक द्वारा चलाई जा रही एक वेबसाइट है जो केवल 800 शब्दों का लेख ही स्वीकार करती है. एक भी शब्द अधिक हुआ तो काट छांट कर दी जाती है.

किसी भी अच्छी राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी वेबसाइट पर विज्ञान तकनीकी के स्तरीय लेख नहीं छपते. यहाँ स्तरीय का अर्थ यह है कि लेख लिखने वाला कम से कम विज्ञान का शोधार्थी अथवा प्रोफेसर हो.

ध्यातव्य है कि विज्ञान आधुनिक चेतना तथा भारतीय संस्कृति के मेल का प्रबल द्योतक है. आर्थिक उन्नति का एकमात्र साधन विज्ञान है जो अब रूढ़िवादी वैचारिक धरातल से ऊपर उठ कर ‘स्मार्ट’ हो चला है.

तभी तो वामसी जुलुरी, हिंडोल सेनगुप्ता, डेविड फ्रॉली, राजीव मल्होत्रा और श्री भगवान सिंह जी का हिंदुत्व आध्यात्मिक ही नहीं वैज्ञानिक भी है.

11 मार्च को जब निर्वाचन परिणाम के रुझान आ रहे थे तो ज़ी न्यूज़ पर प्रो. चन्द्रकांत पी सिंह जी ने बड़ी अद्भुत बात कही. उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को विदेशी राष्ट्रवाद से भिन्न बताया और कहा कि यूरोपीय देश नेशन स्टेट की अवधारणा में जीते हैं जबकि भारत अपने आप में एक स्टेट नेशन है.

यह बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा जबकि हम लोग सिंह साहब की पोस्ट अकसर फेसबुक पर पढ़ते हैं. आवश्यकता है इन विचारों के समुचित प्रसार की. इसके लिए मास मीडिया के सभी संसाधनों को साधना आवश्यक है.

केवल सोशल मीडिया पर लिखने से काम नहीं चलेगा क्योंकि यह आभासी दुनिया है. एक पोस्ट का जीवन चार पाँच दिन से अधिक नहीं होता. एक अन्य वरिष्ठ मित्र इसे ‘बुलबुला’ कहते हैं. हमें विचारों का विधिवत प्रलेखन (documentation) करना होगा ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए राष्ट्रवाद का प्रखर कथानक स्थापित हो सके.

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