शोले देखी है ना! एक बार फिर देखिये एक अलग एंगल से!!

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जब कोई फिल्म बनाई जाती है तो बनाते समय निर्देशक का नज़रिया फिल्म बनाने का अलग होता है और उसमें काम करने वाले कलाकारों का अलग.

सिप्पी साहब जब शोले का निर्माण कर रहे होंगे तब उन्हें अंदाजा भी नहीं होगा कि 40 साल बाद भी शोले सुर्ख़ियों में बनी रहेगी.

धर्मेन्द्र ने फिल्म में काम किया होगा तब काम करते हुए उनका तरीका यकीनन अमिताभ से बहुत अलग होगा. हेमा, जया, संजीव कुमार और अमजद खान सहित और भी कई कलाकार थे जिन्होंने फिल्म में अपने अपने तरीके से काम किया, लेकिन उद्देश्य सबका एक ही था फिल्म को सफल बनाना.

जब एक दर्शक किसी फिल्म को देख रहा होता है तब बाजू में बैठे  दर्शक से उसका नज़रिया भी अलग होता है. तो ये ज़रूरी नहीं कि मैं शोले फिल्म को जिस तरह से देख रही हूँ, वो आपके देखने के तरीके से मेल खाए, लेकिन फिर भी अपने देखने के तरीके को आपके सामने प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य सकारात्मक है.

शोले फिल्म में कई रिश्तों को एक साथ परदे पर प्रस्तुत किया गया. फिल्म शुरू होती है, दो दोस्तों के बीच की दोस्ती से, फिल्म में एक रिश्ता वीरू का हेमा के साथ दिखाया गया है जो जय और जया के रिश्ते से बिलकुल भिन्न है, एक रिश्ता  रहीम चचा का उनके बेटे के साथ दिखाया गया था तो एक रिश्ता बसन्ती का धन्नो से….

एक सीन वीरू का टंकी पर चढ़कर प्रेम के इज़हार का था जो बहुत मुखर था, तो दूसरी ओर जय का जया के साथ था जो बहुत ही मौन था. क्या आप कल्पना कर सकते हैं यदि शोले में गब्बर न होता तो शोले, शोले बन पाती? नहीं ना….

इसी तरह जब हम देश की बात करते हैं तो उसे विश्व स्तर पर ऊंचा उठाने के लिए अलग-अलग लोगों, समूह और राजनीतिक दल, आतंकवादी दल और अलग-अलग विचारों के लोगों से टकराते हैं, कुछ हमारे विचारों के अनुकूल होते हैं, कुछ प्रतिकूल. अनुकूल शब्द भी तो प्रतिकूल का उल्टा प्रतिबिम्ब ही है…

लेकिन किसी देश को सफलता की ओर अग्रसर करने के लिए सभी की भूमिका महत्वपूर्ण है. कोई वीरू की तरह शराब की बोतल हाथ में लेकर टंकी पर चढ़ा हुआ देश प्रेम का इज़हार कर रहा है, कोई जय और जया के प्रेम की तरह मौन समर्थन दे रहा है.

देखने वाले दर्शकों का एक वर्ग वीरू के टंकी पर चढ़े होने के सीन पर ताली और सीटी बजाते हुए अपनी भावना को उसके साथ जोड़ रहा है तो एक वर्ग वो भी है जो गब्बर की गर्जना का मुरीद है, जो अपने स्वार्थ के लिए साथियों को गोली से भुन देने में भी गुरेज़ नहीं करता…

एक वर्ग रहीम चचा के बेटे की मौत पर दिल मसोस कर रह जाता है, तो एक वर्ग जय का मौसी को वीरू के खिलाफ भड़काने पर भी आनंदित होता है… एक वर्ग संजीव कुमार के अपाहिज हो जाने पर भी उसकी हौसलापरस्ती का कायल है तो एक वर्ग असरानी की वर्दी पर भी तंज कसता है….

तो जैसे एक फिल्म को सफल बनाने के लिए इन सारे लोगों और घटनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है, उसी तरह एक देश की उन्नति के लिए सारे कारक, सारे लोग महत्वपूर्ण है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता वो पक्ष में है कि विपक्ष में… यदि सभी लोग केवल देश की उन्नति चाहते हैं तो प्रकृति आपकी सामूहिक ऊर्जा को देख रही है आपके विचार और कर्म का नंबर बाद में आता है…

यूं तो हर क्षण परिवर्तनशील है लेकिन इस समय ये जो देश में परिवर्तन आ रहा है वो आपकी सामूहिक ऊर्जा के फलस्वरूप आ रहा है, जिसमें कई घटनाएं फिलवक़्त आपको मानवता या देश के प्रतिकूल लगेगी. लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति में आप परास्त या निराश नहीं होते हैं तो आगे जाकर यही परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाएगी…

युद्ध चाहे कैसा भी हो संवहारक होता है लेकिन हर युद्ध एक नए युग के सृजन के लिए आवश्यक होता है… हम सभी एक युद्ध लड़ रहे हैं, जिसमें कई हत्याएं होंगी और कई शहीद भी होंगे लेकिन उसके बाद जिस नए युग का सृजन होगा वो यकीनन अभूतपूर्व होगा.

ये जो क्रान्ति का दौर आया है उसमें हमें पूरी तरह खुद को झोंक देना है और कोई विकल्प हमारे पास है भी नहीं लेकिन हमें इसके लिए क्रांतिकारी बनना होगा, आक्रान्ता नहीं… विचारों की मशाल लिए हुए भी हमें सजग रहना होगा कि कहीं उसके शोले हमारा मुख्य उद्देश्य ही न जला दें.

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