राजा और ऋषि की जोड़ी, सनातन संस्कृति की एक आदर्श राजनैतिक व्यवस्था

राजा और ऋषि की जोड़ी, हमारी सनातन संस्कृति की एक आदर्श राजनैतिक व्यवस्था थी. मैं यहां ‘थी’ इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि पिछली कुछ सदी में सिर्फ राजा रह गए, ऋषि सीन से गायब हैं.

अब कोई यहाँ आज के संत-ऋषियों के नाम मत रखने लगना. यहां इस पर बहस करना मूल उद्देश्य नहीं, वैसे भी हर काल में हर समाज के हर वर्ग में अच्छे-बुरे बराबर से होते हैं और इनका अनुपात समाज का ही दर्पण होता है.

बहरहाल, हम मूल विषय पर आते हैं, राजा और ऋषि की व्यवस्था को आदर्श कहने के पीछे इतिहास के अनेक उदाहरण हैं, जिनमे हरेक यशस्वी सफल राजाओं के नाम के साथ किसी ना किसी ऋषि का नाम जरूर आता है.

राजा हरिश्चंद्र से लेकर राजा दशरथ के साथ गुरु वशिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र का नाम आता है तो राजा परीक्षित के साथ ऋषि शमीक और ऋषिकुमार ऋंगी ऋषि का नाम आता है.

ऐसी कई जोड़ियां हैं. और हरेक के साथ जुडी है रोचक कहानियां. राजा महल में रहता था तो ऋषि दूर जंगल में किसी कुटिया में. एक सत्ता का सुख भोगता था तो दूसरा तपस्या में लीन रहता था.

यह एक सत्ता का संतुलन है. जो किसी एक के पास रह कर अनियंत्रित हो सकती है. हमारे पूर्वज इतने दूरदृष्टि रखते थे. हमारी तो ईश्वरीय कल्पना के मूल मे भी गणतन्त्र है. जहां भारत में अनादि काल से त्रिदेव का अस्तित्व इस परम्परा का बीज मन्त्र है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश संयुक्त रूप से सृष्टि का संतुलित सृजन, संचालन तथा संहार करते आ रहे हैं.

इस क्रम में पुरानी परम्परा के सभी अच्छे तत्वों को ग्रहण करते हुए नयी परम्पराएं भी जुड़ती चली गयीं. यही सनातन संस्कृति की एक निरन्तर विकसित होने की प्रक्रिया है.

इस व्यवस्था में चाणक्य और चन्द्रगुप्त की जोड़ी इसका श्रेष्ठ उदाहरण हो सकता है. दूसरी ओर रावण और कंस के साथ कोई ऋषि का ना होना ही उनके कुशासन का कारण बना.

इन सबके पीछे एक सामान्य सोच है कि जिसके हाथ में सत्ता होगी वो भी आखिरकार एक मनुष्य ही होगा, उसका भी परिवार होगा, अर्थात उसके साथ मानवीय कमजोरियों का पूरा बोझ होगा, कब ये सब शासन व्यवस्था पर हावी हो जाए, कहना मुश्किल है.

इसको ही चेक करने के लिए, सत्ता को संतुलित रखने के लिए, सत्ता के शीर्ष को भी नियंत्रित करने वाला कोई होना चाहिए. और वो कोई ज्ञानी संत और ऋषि ही हो सकता है. इसलिए हमारे इतिहास में श्राप का चलन रहा है और कोई भी राजा निरंकुश होते ही इससे बच नही पाया.

और जो राजा नही माना उसका हश्र महाभारत की कथा में खुल कर दिखाया गया. महाभारत में क्या हुआ था, उस काल के सभी ऋषि-संत पुरुष ना तो सत्ता के शीर्ष को समझा सके उलटा उनके साथ अधर्म के भागीदार बने, जिसके कारण सर्वनाश हुआ.

पश्चिम में ऐसी कोई व्यवस्था नजर नही आती. चर्च और मौलवियों का रोल तो है मगर वो अपने धर्म के प्रचार-प्रसार में अधिक दिलचस्पी रखते रहे. जहां धर्म का अर्थ सिर्फ किसी सम्प्रदाय को मानने वालो की संख्या बन गया, जबकि धर्म का असली अर्थ अनगिनत कर्तव्य कभी इनकी डिक्शनरी में रहा ही नही.

हिंदुस्तान जब अपनी सनातन व्यवस्था से दूर होने लगा तो वो भी दुर्बल हुआ और इसीलिए गुलाम भी. हिंदुस्तान की गुलामी के दौरान तो राजा और ऋषि व्यवस्था का तो सवाल ही नही था, आजादी के बाद प्रजातंत्र में भी यह व्यवस्था नही आयी. हमने बस पश्चिम को कॉपी कर लिया.

आज खोजिये, ऋषि की भूमिका में कौन है? मीडिया, जो खुद धंधा करता है या लेखक, जिसकी बौद्धिकता खुद एक सवाल है.

प्रजा को इसलिए नही माना जा सकता क्योंकि प्रजा खुद मानव का समूह है जो अपने अपने स्वार्थ से लिप्त है. उसकी दाल रोटी की समस्या बनी रहती है वो अपने परिवार से घिरा रहता है. इसलिए उसका चुनाव हमेशा सही नही होता. वो प्रतिक्रियावादी है. यह किसी भी व्यवस्था के लिए सकारात्मक नही कहा जा सकता.

जो संत हैं, उनमे भी कितने निस्वार्थ भाव वाले हैं और सबसे बड़ी बात कितने ऋषि हैं! जो हैं वो सत्ता से दूर है और जो नजदीक हैं वो वोटबैंक से अधिक कुछ नही.

आज का धर्मगुरु कुटिया में तपस्या नही करता और जो करता है उनके पास राजा नही जाता और अगर जाता है तो चुनाव जीतने का आशीर्वाद लेने, ना कि उनसे आदेश लेने.

आज भी संत-ऋषि होंगे मगर कितने हैं जो श्राप दे रहे हैं. कोई नही. इन सब का परिणाम है सत्ता भ्रष्ट हो चुकी है निरंकुश हो चुकी. ऐसे में प्रजा भी क्या करे?

उसने उनको चुनना शुरू किया, जो परिवार से दूर हैं, इसी आशा से कि ये किसी परिवार जनित भ्रष्टाचार और स्वार्थ से दूर होंगे. और परिवारवाद के चरम के बीच अनेक अविवाहित राजनेताओं का दौर शुरू हुआ.

पटनायक से लेकर माया, ममता, जयललिता आदि आदि. मगर यह भी है लंबा चल नहीं पा रहे. इनमें से अधिकांश का अगर कोई पतन हुआ या हो रहा है तो उसका कारण भी कहीं ना कहीं मानवीय मोह अर्थात अवगुण है.

मगर इनसे इतर मोदी अभी तक सफल हैं तो उसके मूल में है उनका परिवार से पूरी तरह दूर होना. अर्थात मानव जनित अवगुणों और स्वार्थ से बहुत हद तक बच पाना. उनका एक कर्मयोगी की तरह जीवन जीना यह बतलाता है कि वे राजा और ऋषि दोनों की सयुंक्त भूमिका में है.

उत्तर प्रदेश के योगी एक और ताजा उदाहरण हैं, जिसमें यह व्यवस्था एक कदम और आगे जाती नजर आती है, जहाँ एक ऋषि अर्थात धर्मयोगी खुद राजा के रोल में आ खड़ा हुआ है.

ये दोनों कर्मयोगी और धर्मयोगी, तब तक सफल रहेंगे जब तक इनके भीतर का ऋषि ज़िंदा है और वो राजा पर हावी है, जिस दिन इनके अंदर के राजा ने सर उठाया इनका भी पतन सुनिश्चित है.

Comments

comments

LEAVE A REPLY