कई लोग जो मांसाहार बनाम शाकाहार की बहस में शामिल होते हैं शायद उन्होंने सस्टेनेबल डेवलपमेंट के बारे में नहीं सुना.
सबसे पिछड़े वर्गों को आर्थिक सुरक्षा देने के लिए जो तरीके, जीविका, आजीविका जैसी सरकारी योजनायें अपनाती है उनमें पशुपालन प्रमुख होता है. लोन या नौकरी एक बार दी जा सकती है.
तो किसी पुरानी कहावत जैसा एक बार मछली देकर भूख मिटाने का इंतजाम नहीं किया जाता. गरीब को मछली पकड़ना ही सिखा देते हैं ताकि जरूरत होने पर उसे किसी का इंतज़ार ना करना पड़े.
जो पशुपालन सिखाया जाता है उसमें मुर्गी, बकरी इत्यादि पालना सिखाने की कोशिश की जाती है. गाय-भैंस जैसे बड़े जानवर पालना नहीं सिखाया जाता.
इसके पीछे कारण ये है कि बकरियां, मुर्गियां बड़ी हो जाएँ तो उन्हें मांस के लिए बेच कर अच्छी आय हो सकती है.
दूसरी चीज़ है कि इन्हें पालने में ज्यादा जगह की जरुरत नहीं होती, ज्यादा खर्च नहीं आता, ना ही बहुत ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है.
मांस के लिए पाले जाने वाले जीवों में हाल में तीतर-बटेर भी आने लगे हैं. फिलहाल कबूतर-बत्तख पर उतना ध्यान नहीं है, लेकिन जल्द ही उस पर भी संस्थाओं का ध्यान चला जायेगा.
मांस के लिए पाले जाने वाले जानवरों में सबसे तेज प्रजनन वाला जीव है सूअर. अनुपात के हिसाब से देश के पूर्वोत्तर राज्यों में सूअर ज्यादा पाले जाते हैं, लेकिन आकार में उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है शायद इस वजह से 2012 की पशुगणना के हिसाब से यूपी में सबसे ज्यादा सूअर थे.
उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में डोम समुदाय की आबादी होती है, वो परंपरागत रूप से सूअर पालते हैं, इसलिए भी इन इलाकों में सूअर ज्यादा हैं. ख़ास तौर पर मांस के लिए सूअर के फार्म केरल जैसे भारत के दक्षिणी राज्यों में ज्यादा हैं.
देश में करीब छह मिलियन टन मांस का उत्पादन होता है और उसमें से सूअर का मांस सिर्फ आधा मिलियन टन के लगभग है.
आम तौर पर बोलचाल की भाषा में, सूअर के मांस का नाम पोर्क (pork) कहा जाता है लेकिन ये नाम मांस में चर्बी के हिसाब से होता है.
मारे गए सूअर का वजन अगर 60 किलो के लगभग हुआ तो उसमें चर्बी कम होती है, इसकी कीमत सबसे ज्यादा होती है.
अगर सूअर 90 किलो के आस पास का है तो उसका मांस बेकन (bacon) कहलाता है, ये पोर्क से सस्ता बिकता है.
सबसे कम कीमत का मांस हॉग (hog) होता है जो कि 110 किलो या अधिक के सूअर का मांस होता है. इसमें चर्बी इतनी होती है कि उसे अलग किया जा सके. उस चर्बी से टेलो बनाया जाता है.
सूअरों का प्रजनन ज्यादा होता है, वो साल में दो बार प्रजनन कर सकते हैं. मादा सूअरी करीब साल भर की उम्र में बच्चे पैदा करने लायक हो जाती है. उसके साठ किलो के होने में भी बहुत ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ता.
करीब छह महीने की उम्र में सूअर 60 किलो के आस पास होगा. सूअर बहुत कम रोगग्रस्त होते हैं, मुर्गी पालन की तरह इसमें रिस्क नहीं होता, काफी कम होता है.
अभी जो उत्तर प्रदेश 0.172 मिलियन टन सूअर के मांस का उत्पादन करता है, उसके विकास की बहुत संभावनाएं हैं. जो ऐसे व्यवसाय से जुड़े हैं वो मौके का फायदा उठा सकते हैं, ना हो तो जो गरीब वर्ग के युवा हैं, उन्हें इस विकल्प के बारे में बता तो सकते ही हैं.
भैंसा मिलना बंद होने से आलू की कीमत बढ़ेगी जैसे हास्यास्पद तर्कों के बदले शरीर को थोड़ा कष्ट दीजिये. आपकी मामूली सी मदद से कई रोजगार पैदा हो सकते हैं.