योगी सरकार भी मोदी सरकार की ही तरह उम्मीदों की सरकार है. जनता लंबे समय से जो उम्मीद पाले थी, उसी को वोट में बदल कर इस सरकार को लाई है. फिर सरकार आते ही जब एंटी-रोमियो स्क्वाड के गठन जैसे फैसले लेती है तो उससे पब्लिक में निश्चित ही सन्देश जाता है.
पता नहीं ये फैसला कैसा है… मैंने करीब से नहीं देखा इसके परिणामों को. लेकिन जब सोचता हूँ, कि हमारी महिलाएं यही तो चिल्ला रही थीं सालों से, कि जब मानसिकता पुरुषों की ख़राब है… गलती पुरुष करते हैं, फिर बंधन महिलाओं पर क्यों हो? तब लगता है ये काफी प्रोग्रेसिव फैसला है.
जब इस पर मैं उन पिताओं के प्रतिक्रिया को देखता हूँ, जो इसके पहले अपनी बेटी को बाजार भेजने से डरते थे, पर इस फैसले पर खुशी जाहिर कर रहे हैं, तो लगता है कि फैसला सही ही होगा.
कई बार जब सार्वजनिक स्थानों पर लोगों की आपत्तिजनक स्थिति में हम देखते हैं, तो निश्चित ही असहज होते हैं. ऐसे लोगों पर अगर कार्रवाई हो रही तो क्या बुरा है. हमें इतना आधुनिक भी क्या होना!
चाहे मुख्यमंत्री जो बोलें कि मॉरल पोलिसिंग नहीं होगी. लेकिन इन सब के बीच राह चलते लोगों को परेशान किया जाता है. किसी जोड़े को बेवजह ही दिक्कत होती है या राह चलते किसी व्यक्ति पर इल्जाम लगा दिया जाता है, वो तो निश्चित ही दुखद है.
ऐसे में यदि कोई, जो भुक्तभोगी है… जिसने इसे झेला है… वो अगर सवाल उठाता है तो हमें उसके विरोध पर आपत्ति करने का कितना हक़ है ?
विरोध की बात करें तो विरोध करने और विरोध का विरोध करने के फेर में हम सीमा की कब लाँघ जाते इसका पता ही नहीं चलता.
कुछ लोग हैं जो बस विरोध करने में विश्वास रखते हैं. सही-गलत हर कदम का विरोध करेंगे, क्योंकि सरकार उनकी नहीं है.
यहीं से एक वर्ग उठ खड़ा होता है जो हर विरोध को दबाने में सक्रिय हो जाता है. चाहे वो कितना भी जायज क्यों न हो. उन्हें शायद ये याद रखना चाहिए कि विरोध के स्वर दब कर विस्फोट ही करते हैं!
हमें ध्यान रखना चाहिए कि ये जनता का विरोध ही है जिसने सरकारों के सरकार को जड़ से उखाड़ फेंका या रसातल में फेंक दिया.
विरोध नहीं होता तो यूपीए की सरकार भी नहीं गई होती. वो तो कई बार जनता विकल्पहीन होती है वर्ना..
जो ये सोचते हैं कि दिल्ली की जनता बेवकूफ थी जो केजरीवाल को चुना… मुझे ऐसा नहीं लगता, मुझे लगता है कि जनता जिसमें उम्मीद देखती है, जिधर विकल्प नजर आता है, उसे चुनती है.
ऐसा नहीं होता तो न आज मोदी चुने गए होते, न केजरीवाल और न योगी… पर जनता की नियति भी अजीब है हर बार ठगी जाती है.
जो ये सोचते हैं कि जनता ने इस सरकार के आने पर विरोध करना सीख लिया, वो जरा पीछे झांक कर देखें, बहुत नहीं तो यूपीए तक ही देख लें, जवाब मिल जाएगा.
हाँ ये सच है कि जनता को डराने वाले नए लोग जरूर आ जाते हैं.
खामियां हो सकती हैं. इसे मानने में गुरेज कैसा? आखिर सिस्टम तो वही है, पुलिस तो वही है… राजसत्ता बदल जाने से चार दिनों में कितना कुछ बदल जाएगा?
फिर आपको तो खुश होना चाहिए कि जनता चार दिन के सरकार से भी इतना उम्मीद रखे है… उसकी उम्मीद को मत तोड़िये… उसे हतोत्साहित मत करिए.. वर्ना वो जितना टूटती है, सरकारों की कब्र उतना ही गहरा खोदती है.
हम मानते हैं कि पिछली सरकारों में लाखों खामियां रही होंगी. लेकिन उन खामियों के बदौलत आप अपनी कमियों को कैसे छुपा सकते हैं?
उन्ही को गिना के तो आप सत्ता में आए थे. फिर उनकी एक गलती और आपकी एक गलती मिला के सही कैसे हो जाती है? ये कैसा कैलकुलेशन है?
आपका एक सांसद अगर किसी शिक्षक से बदतमीजी करता है तो उसे स्वीकारने की क्षमता आपमें होनी चाहिए. क्यों लाखों तर्क देकर उस भाषा को मधुर साबित करने पर तुले हैं? आप क्या समझते हैं, जनता नहीं समझती क्या?
आपके सहयोगी दल का एक सांसद एयरलाइन कर्मचारी को चप्पल से पीटता है और फिर ये कहता है कि अगर मौका मिला तो वो फिर ऐसा करेगा.
कहाँ से आती है लोगों में इतनी हिम्मत? जनता ने उधर-वालों के ऐसे कारनामों से तंग आकर ही आपको वोट दिया था न? नहीं?
हम डिजिटल इंडिया की बात करते हैं. डिजिटल इंडिया में डिजिटल होने के चक्कर में जब हम परेशान होते हैं तो कोई सुनने वाला नहीं होता.
खुद मैंने अपनी पैन एप्लीकेशन से जुडी समस्या बताई थी. जो उपलब्ध विकल्प हैं, वहां कोई सुनवाई नहीं है. मेरे पास कोई ऐसा फोरम नहीं है जहाँ मैं अपनी शिकायत दर्ज करा सकूँ.
ऐसी परिस्थितियों में जब कोई इन चीजों के खिलाफ बोलता है तो बात राष्ट्रद्रोह-राष्ट्रभक्ति तक पहुँच जाती है. आजकल ये भी एक बड़ा ट्रेंड है जिसमें हर विरोध को देशभक्ति और देशद्रोह से बहुत आसानी से जोड़ दिया जाता है.
अब बताइए किसी सांसद के खिलाफ बोलने वाला, किसी अधिकारी के खिलाफ बोलने, डिजिटल इंडिया के समस्याओं पर सवाल उठाने वाला देशद्रोही कैसे हो जाता है? इन सामान्य से बुनियादी सवालों को पूछने वाला राष्ट्र-निर्माण में बाधा कैसे डाल देता है ?
सवाल कई सारे हैं और जवाब बमुश्किल ही दिखते हैं. ऐसे में कई बार लगता है कि हमारा फिलॉसफी की शरण में जाना ही बेहतर है. छद्म ही सही, लेकिन इन चीजों से दूर तो ले जाता है…