उत्तर प्रदेश के हिन्दू भैंसे का मांस (बड़ा) नहीं खाते. गौ मांस की तरह इसे भी वर्जित माना जाता है.
जब रोक भैंस के काटने (गैर क़ानूनी) पर लगी है तो ‘टुंडे कबाब’ के बंद होने या मांस आपूर्ति में समस्या आने का प्रश्न ही नहीं उठता.
पर दुकान का बंद होना और चिल्ला – चिल्ला कर रोना, चोर की दाढ़ी का तिनका दिखा रहा है.
आँख खोलो…. 240 मसालों के नाम पर ये ‘टुंडा कबाब’ आपको बकरा बता कर भैंसा खिला रहा था.
सबसे पहले तो इसकी ढंग से मरम्मत होनी चाहिए, उसके बाद क़ानूनी कार्यवाई. हमारे अवधी में कहा जाता है ..
यद्धपि फरै बबुल मा बेल, बालू मा से निकले तेल.
कूकुर पानी पिए सुरुक्का, तबै न मानै बात तुरुक्का..
यह बात पूर्वजों ने ऐसे ही नहीं कह दी… इसके पीछे उनका सदियों का अनुभव था, उनका अपना सामाजिक विज्ञान था, जिसके आधार पर मलेच्छों के घर-हाथ का भोजन वर्जित था.
कुछ नवधनाड्यों ने अंग्रेज़ी के चार शब्द क्या सीख लिए, मानो इन्हें मुँह पे पाउडर पोत कर पूर्वजों के बनाए नियमों को तोड़ने का अधिकार मिल गया.
और… पहुँच गए बाप-दादा के नियमों को ताक पर रख कर ‘टुंडे कबाब’ खाने और खा आये भैंसा…
क्या पता ससुरे ने और क्या-क्या खिला दिया हो. जय हो योगी बाबा की, वरना दो आखों की अंधी कौम को यह सच्चाई कभी न दिखती…
कुछ दिन पहले, हैदराबाद के एक अति विश्वस्त सज्जन ने भी बताया था कि किस तरह वहाँ पर हलीमा के नाम पर गौ मांस खिलाया जा रहा है. यही हाल सभी हैदरावादी बिरयानी की दुकानों का भी है.
ये बिरयानी और कबाब की दावत और इसका चस्का लगवाना आप के पतन की पहली सीढ़ी है. लव-जिहाद और सेकुलर बनाने का खेल यहीं से प्रारम्भ होता है.
जो दोस्त आपको इन अड्डों पर ले जाता है वो आपके साथ कभी झटका या पोर्क खाएगा?? कभी नहीं…. तो फिर, क्या आप की जीभ इतनी विवश हो गई है कि स्वाद के नाम पर कुछ भी खा लेंगे?
इस पूरे प्रकरण में सीख यह है कि आज से खाना-पीना थोड़ा सोच-समझ के. ज्यादा उदारता इंसान को कहीं का नहीं छोड़ती.
जो ज्यादा तेज रुदाली कर रहे हैं उनसे कहिए कि अब बड़े की जगह पोर्क (सूअर) का कबाब खाएं, आखिर वामपंथ के हिसाब से मांस तो मांस ही होता है…
प्रोटीन तो सुअर के मांस में भी भरपूर है और सुना है कि इसे पकाने में तेल की बचत भी खूब होती है!