बिहार दिवस वाला मार्च जो पता नहीं कहाँ जा रहा है

जिस तीन शेर वाले निशान से भारत की पहचान होती है वो बिहार के ही एक राजा की देन है. भारत को उसकी पहचान देने वाले पहले राष्ट्रपति भी बिहार के थे.

ऐतिहासिक रूप से वैज्ञानिकों-गणितज्ञों की भी कमी नहीं रही. जब इस्लामिक आक्रमणकारियों ने नालंदा विश्वविद्यालय तोड़ा उस दौर में तो ऑक्सफ़ोर्ड बनना शुरू ही हुआ था.

आर्यभट्ट भी यहीं के थे. लेकिन मालूम पड़ता है कि उत्थान के अपने शिखर पर पहुँचने पर हर चीज़ के लिए आगे का रास्ता, नीचे की ढलान ही होता है.

जंगल राज पार्ट वन में जो बिहारियों ने देखा और भोगा उसके कारण पलायन भी काफी बढ़ा. शिक्षा में भीषण कमी आ चुकी है और उसे सुधारने की दिशा में कोई प्रयास भी नहीं हो रहे. शिक्षा में कमी के साथ ही मानवीय संवेदनाएं भी कम होती जाती हैं.

तस्वीर में ऊपर जो पोस्टर दिख रहा है वो एक टेंट के पर्दे पर था. पोस्टर पर मधुबनी जिले के शराबबंदी का समर्थन करने वालों के दस्तख़त नजर आ रहे हैं.

पर्दे के निचले हिस्से से पीछे पड़ा कूड़े का ढेर दिख रहा है. वहां दो लोगों की परछाई भी नजर आ रही होगी.

ये दोनों सबसे निचले तबके के वो मजदूर हैं जिन्हें टेंट के अन्दर नाट्य-संगीत कार्यक्रम कर रहे कुछ बुद्धिजीवी हाशिये पर का वर्ग बता रहे थे.

बुद्धिजीवी बता रहे थे कि कैसे शराबबंदी से “हाशिये पर के वर्ग” की जीवनशैली बदल गई है. कैसे उनके पैसे बचते हैं, वो आर्थिक रूप से सबसे सबल होते जा रहे हैं.

हम सबसे पीछे बैठे थे. कोने से तस्वीरें ली जा सकती थी. हमारा मन नहीं किया तो बुद्धिजीवियों की, नृत्य नाटिका “खूब लड़ी मर्दानी” की, भीड़ की कोई तस्वीर नहीं ली.

हमने आज, सुशासन बाबू के बिहार दिवस कार्यक्रम में, मजदूरों को पर्दे के पीछे छुपकर, कूड़े के ढेर के पास बैठकर, खाना खाते देखा.

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