धर्म बदल देने में हर्ज़ ही क्या है?

“नए रिलिजन में उनको सभी कुछ तो मिलता है जिसकी उनको जरूरत है. बस इसके बदले में अगर मंदिर की बजाये चर्च या मस्जिद में जाना पड़े तो उसमें हर्ज ही क्या है?”

यह पेशकश ईसाईयों की आजकल लोकप्रिय पेशकश है. इस में कई बातें दिखती हैं जो नजर नहीं आती. आप को दिखाता हूँ. ये वामपंथी दिमाग की उपज है.

1. इसका पहला सबूत है कि इस बात का दायरा धार्मिक से हटाकर आर्थिक कर दिया है. यह वामियों की खासियत है कि वे हमेशा अपनी बात को आर्थिक पैमानों पर समझाते हैं. व्यक्ति की भौतिक जरूरतों को बीच में लाने का मतलब सीधा आर्थिक उपलब्धि की बात की जा रही है.

2. धर्मांतरण को सीधा भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति से जोड़ दिया है. आज जो आप के पास नहीं है और आप को जिसकी चाहत है वो आप को परधर्म दे रहा है. श्रेयान परधर्मों धनप्रद: स्वधर्मे निर्धनम भयावह:. गीता 2016. वामियों की लाड़ली अभिजात्य और वंचित वर्ग वाली थ्योरी यहाँ पूरे शबाब पर. जो आप को इसको पाने से रोके वो आप के प्रगति और समृद्धि का दुश्मन.

3. “अगर मंदिर की बजाये चर्च या मस्जिद में जाना पड़े” यह दोनों डगर वाला मामला है. कहने वाला ईसाई, लेकिन मस्जिद का भी नाम लेकर सेफ खेल रहा है हिन्दू के सामने. कभी गरीब मुसलमान से नहीं कहेगा “अगर मस्जिद की बजाये चर्च या मंदिर में जाना पड़े तो उसमें हर्ज ही क्या है?”

वैसे लालच दे कर या धर्म का अपमान कर धर्मांतरण करवाना भारतीय कानून के नजर में सही नहीं है. यहाँ लालच तो सीधा दिया जा रहा है और अपमान निहित है – क्या तुम्हारा धर्म तुम्हारी जरूरतें पूरी कर सकता है? नहीं कर सकता तो कैसा धर्म है ये तुम्हारा?

फ़िलहाल, संविधान का एक मुद्दा है – धर्मांतरण की कानूनन अनुमति तब है अगर सार्वजनिक व्यवस्था न बिगड़े – subject to public order – विचारणीय है, इस पर अधिवक्ता मित्रों की राय चाहूंगा.

धर्मांतर ही राष्ट्रान्तर होता है, इस की ऐतिहासिक सत्यता तो हिंदुस्तान भुगत चुका है. बंटवारा हुआ, उसके बाद पूर्वोत्तर में भी भारी अलगाव ने सर उठाया. वैसे भी, ख्रिस्तिस्तान की भी मूवमेंट थी ही, और नक्सली इनको ही क्यों कुछ नहीं करते ये खुला राज़ रहा है.

मुसलमान से ये ईसाई ऐसी बात करते नहीं, इसके कारण भी उद्बोधक हैं, और मुसलमानों की इस प्रश्न को उत्तर देने की रीति अनुकरणीय भी है. देखते हैं ये दूसरा गाल बढ़ाते हैं तो.

तस्मादुत्तिष्ठ!

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