भगत की मिट्टी की खुशबू हम सबके ज़ेहन में रच-बस चुकी, तुम्हारे षडयंत्र अब नहीं होंगे सफल

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1931, फरवरी-मार्च का महीना, सेन्ट्रल जेल, लाहौर के 14 नम्बर वार्ड में फाँसी की प्रतीक्षा कर रहे बंदियों में से एक ने अपनी माँ को एक पत्र लिखा. माँ ने बेटे का पत्र खोला तो उसमें लिखा था, माँ, मार्च की 23 तारीख को तेरे बेटे की शादी है, आशीर्वाद देने जरूर आना.

माँ सोचने लगी जेल में तो लडकियाँ होती नहीं तो फिर ये पगला किससे प्यार कर बैठा, कहीं किसी जेलर की बेटी पर तो मेरे बेटे का दिल नहीं आ गया? माँ से पूछे बिना बेटा शादी कर लेगा इस आशंका से पीड़ित माँ ने तस्दीक करने के लिये अपने छोटे भाई को भेजा, जा जरा देख के आ कि ये किस कुड़ी को दिल दे बैठा है.

कैदी ने मिलने आने वाले को एक कागज पर कुछ लिख कर दिया और कहा, इसे माँ को दे देना और ध्यान रहे इसे और कोई न खोले. माँ ने बेटे का पत्र खोला तो लिखा था, मेरी होने वाले दुल्हन का नाम है “मौत”.

मौत को माशूका बना लेने वाले इस शख्स का नाम था भगत सिंह. ये वो नाम है जिसके सामने आते ही देशप्रेम और बलिदान मूर्त हो उठता है. भगत वो नाम है जिसकी राह रूप, यौवन और सौन्दर्य नहीं रोक सकी, भगत वो नाम है जिसने एक अत्यंत धनी परिवार से आये विवाह प्रस्ताव को ये कहते हुए ठुकरा दिया था कि मेरा विवाह तो अपने ध्येय के साथ हो चुका है अब दुबारा विवाह क्या करना.

भगत वो नाम भी है जिसके लिये उसकी अपनी धार्मिक परंपरा के अनुपालन से अधिक महत्व भारत की आजादी का था. वो चाहता तो फांसी की सजा से बच सकता था पर उसने इसके लिये कोई कोशिश नहीं की, इसलिये नहीं की क्योंकि उसे पता था कि अपना बलिदान देकर वो तो सो जायेगा पर सारा भारत जाग उठेगा और फिरंगी हूकूमत की जड़ उखड़ जायेगी.

जिस हुतात्मा का सिर्फ जिक्र भर आज उसके बलिदान के 86 साल बाद भी युवकों में जोश भर देता है, तो जाहिर है कि वो लोग जिनकी विचारधारा का अवसान हो चुका है वो अगर भगत को अपने खेमे का साबित कर दें तो शायद उनकी मृत विचारधारा कुछ अवधि के लिये जी उठे.

इसी सोच को लेकर कम्युनिस्टों ने बड़ी बेशर्मी से भगत सिंह के बलिदान का अपहरण कर लिया. विपिन चन्द्र, सुमित सरकार, इरफान हबीब, रोमिला थापर जैसे वाम-परस्त इतिहासकारों ने सैकड़ों लीटर स्याही ये साबित करने में उड़ेल दी थी कि भगत सिंह तो कम्युनिस्ट थे. भगत के “मैं नास्तिक क्यों हूँ” वाले लेख को बिना किसी आधार का ये लोग ले उड़े और उसे लेनिन के उस कथन से जोड़ दिया जिसमें उसने कहा था कि ‘नास्तिकता के बिना मार्क्सवाद की कल्पना संभव नहीं है और नास्तिकता मार्क्सवाद के बिना अपूर्ण तथा अस्थिर है’.

यानि इनके अनुसार भगत सिंह मनसा, वाचा, कर्मणा एक प्रखर मार्क्सवादी थे. भगत सिंह के प्रति ममत्व जगने के वजह ये भी है कि जिस लेनिन, स्टालिन, माओ-चाओ, पोल पोट वगैरह को वो यूथ-आइकॉन बना कर बेचते रहे थे उनके काले कारनामे और उनके नीतियों की विफलता दुनिया के सामने आने लगी थी और स्वभाव से राष्ट्रप्रेमी भारतीय युवा मानस के बीच उनको मार्क्सवादी आइकॉन के रूप में बेचना संभव नहीं रख गया था इसलिए इन्होने भगत सिंह को कम्युनिस्ट बना कर हाईजैक कर लिया.

इसलिये किसी व्यक्ति के मृत्यु के उपरांत उसकी विचारधारा को लेकर जलील करने का सबसे अधिक काम अगर किसी ने किया है तो वो यही लोग हैं जिन्होनें भगत सिंह जैसे हुतात्मा को कम्युनिस्ट घोषित करने का पाप किया. ऐसे में इस बात की तहकीक भी आवश्यक हो जाती है कि क्या कम्युनिस्टों के मन में हमेशा से भगत सिंह के प्रति आदर था या अपने राजनीतिक फायदे और अस्तित्व रक्षण के लिए उन्होंने उगला हुआ थूक निगल लिया ? भगत सिंह के प्रति कम्युनिस्ट आदर जानने के आवश्यक है कुछ कम्युनिस्टों की किताबों को पढ़ा जाए और भगत सिंह के संबंध में कुछ कम्युनिस्ट नेताओं की स्वीकारोक्तियों को सुना जाए.

भगत के लिए वाम-श्रद्धा देखनी है तो एक वरिष्ठ पूर्व कम्युनिस्ट नेता सत्येन्द्र नारायण मजूमदार की 1979 में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “इन सर्च आफ ए रिवोल्यूशनरी आइडियोलाजी” को पढ़ना पर्याप्त है. इस किताब में उन्होंने भगत सिंह की निंदा करते हुए उन्हें एक मूर्ख, अति उत्साही, भावुक और रोमांटिक क्रांतिकारी बताते हुये उनके बारे में कहा है कि उस मूर्ख को सामूहिकता के साथ काम करने नहीं आता था.

एक और कामरेड थे अजय घोष जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में 1951 से 1962 तक महामंत्री रहे थे और दावा करते थे भगत सिंह के साथ उनका संबंध 1923 में ही आ गया था. इस महानुभाव ने भी “भगतसिंह और उनके कामरेड” शीर्षक से लिखे एक लेख में स्पष्ट कहा था कि भगत सिंह सच्चे अर्थों में मार्क्सवादी थे ही नहीं क्योंकि केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर बिना किसी प्रतिरोध के स्वयं को गिरफ्तार कराने और फांसी पर चढ़ने के उनका निर्णय व्यक्तिगत था, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी व्यक्तिगत हिमाकत मानती है.

भगत को अपने खेमे में लाने की कोशिश करते हुए उन्हें ये पता है कि उनकी मृत विचारधारा तब भी जीवित नहीं रखेगी पर भगत को अपने खेमे में दिखाने का उनका दूरगामी उद्देश्य ये है कि भारत का युवा इस विष-प्रचार से भ्रमित होकर भगत से घृणा करने लग जाये.

ये कम्युनिस्ट खेमे का कितना बड़ा अपराध है कि उन्होंने देश के लिये बलिदान होने वाले को उस विचारधारा में शामिल कर दिया जहाँ देश-भक्ति के बलिदान तो दूर देशप्रेम के लिये भी रत्ती भर गुंजाइश नहीं है. इन्होंनें उस भगत को जबरदस्ती नास्तिक बना दिया जिसने 6 मई, 1925 को कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक “मतवाला” में बलवंत सिंह के छद्म नाम से प्रकाशित अपने लेख में भारत के युवाओं से आह्वान करते हुए लिखा था, “तेरी माता, तेरी प्रात: स्मरणीया, तेरी परम वन्दनीया, तेरी जगदम्बा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्य श्यामलाञ्चला आज फूट-फूट कर रो रही है क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती ? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर, तेरे पितर भी शर्मसार हैं तेरे इस नपुंसत्व पर. यदि अब भी तेरे किसी अंग में थोड़ी हया बाकी हो तो उठ माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आंसुओं के एक-एक बूंद की सौगंध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कण्ठ से- वन्दे मातरम्.

कम्युनिस्टों, है हौसला कि भगत के इस आह्वान को अपना ध्येय-वाक्य मानने की? है हौसला भगत के वन्दे-मातरम् के नारे के साथ सुर मिलाने की? है हौसला भारत को सिंहवाहिनी, त्रिशूलवाहिनी देवी रूप में स्मरण करने की? नहीं है न, तो भगत के बलिदान के अपहरण का कुत्सित पाप भी मत करो, जागृत भारत तुम्हारे हर प्रपंच को विफल करने को तैयार बैठा है. भगत ने गाया था, दिल से जायेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी.

भगत की मिट्टी की खुशबू हम सबके जेहन में रच-बस चुकी है, तुम्हारे षड्यंत्र सफल नहीं होंगे.

(भगत सिंह के बलिदान दिवस 23 मार्च, 1931 पर उनके श्रीचरणों में सादर)

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