VIDEO : ओशो पर बोलने में आनंद आता है साहब : मोरारी बापू

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ओशो पीठ के उद्घाटन अवसर पर मुरारी बापू के उद्गार

22 जनवरी 2017 को गुजरात के सूरत विश्वविद्यालय में, ओशो की परम चेतना को प्रणाम करते हुए सुप्रसिद्ध कथाकार संत पूज्य श्री मोरारी बापू ने अपना वक्तव्य इस प्रकार प्रारंभ किया-

ओशो जैसी हिंदी, विश्व में कोई नहीं बोल सकता. ओशो को पढ़ते हुए यह स्पष्ट प्रतीत होता है. उनकी आवाज मैंने सुनी है. उनके सत्संगी तो बड़भागी हैं ही, उनसे चैतसिक संवाद करने वाले भी धन्यभागी हुए हैं.

मुझे दो बार ओशो के दर्शन करने का अवसर मिला एक बार मुंबई के शिवाजी पार्क में, जब ओशो ‘आचार्य रजनीश’ के रूप में जाने जाते थे और पूरे देश में परिभ्रमण कर रहे थे. उस समय शायद ओशो गीता के दसवें अध्याय पर प्रवचन कर रहे थे. तब मैं भी दूर बैठकर ओशो के प्रवचनों को सुना करता था.

यह मेरा पहला ओशो दर्शन, ओशो श्रवण था. दूसरी बार मुझे ओशो के दर्शन तब हुए जब वह पूना में प्रवचन कर रहे थे. वह सुबह का समय था जब मैं ओशो के प्रवचन सुनने गया था, किन्हीं कारणों से वहां के व्यवस्थापकों ने मेरी काली शॅाल मुझसे प्रवेशद्वार पर रखवा ली. शायद उस दिन वो मुझसे मेरी माला भी मांगते तो मैं दे देता, क्योंकि किसी बुद्ध पुरुष को आप अपनी शर्तों पर नहीं सुन सकते.

जब मैं प्रवचन में पहुंचा तो इसे मेरा दुर्भाग्य तो नहीं कहा जाएगा, परंतु उस महीने पूरी प्रवचन श्रृंखला अंग्रेजी में चल रही थी. (वे क्रमशः एक माह हिन्दी में और एक माह अंग्रेजी में बोला करते थे.) यद्यपि ओशो की अंग्रेजी भी बड़ी आकृष्ट करती है. लेकिन जब शब्द समझ न आए तो क्या चिंता, ओशो की वाणी एक नाद की तरह थी जिसका श्रवण मुझको प्रसन्न कर रहा था, वो आनंद मैंने भरपूर लूटा.

अगर कोई मुझे कहता है कि ओशो विद्रोही थे तो मैं उन्हें बस यही कहता हूं कि बुद्ध पुरुष विद्रोही होते ही हैं, होने चाहिए, लेकिन उस विद्रोह में किसी के प्रति द्रोह नहीं होता, वह द्रोह मुक्त होता है.

इस प्रकार मुझे दो बार ओशो को सुनने का, दर्शन का सुअवसर मिला. ओशो से जब मैं पहली बार मिला था तब वो सफेद धोती पहने थे. दूसरी बार जब पूना में दर्शन मिला तब वो सफेद गाउन पहनते थे.

[ भारत के चमत्कारी संत : मुरारी बापू, काले कम्बली वाले बाबा का कम्बल या हनुमान का राम प्रेम! ]

मैं अपने शब्दों में ‘ओशो’ शब्द का अर्थ व्यक्त करूंगा. ओशो का मैंने जो अर्थ सुना है, वह यह है- ऐसा भाग्यवान, जिस पर अस्तित्व फूल बरसाते हैं. मगर मेरा अर्थ है- ओ का मतलब- ओन, खुद का; और एस का मतलब साइलेंस, मौन, शांति. अर्थात् शास्त्र अर्जित नहीं, वातावरण अर्जित नहीं, प्रयास से पाई गई भी नहीं, सहज, स्वाभाविक, स्वयंभूत शांति.

एच यानी हैप्पीनेस, होलीनेस, प्रसाद पूर्ण प्रसन्नता, पवित्रता. खुद के होने में ऐसा आनंद, पावन-पावित्र्य, जो संस्कार अर्जित नहीं, स्व-स्फूर्त है. ओ शार्टफार्म है ओन का, खुद का, स्वयं का.

यह मेरी परिभाषा मुझे प्रिय है. जिसका अपना मौन न हो, जिसकी अपनी पवित्रता न हो; वो ओशो अवस्था से बहुत दूर है. इस ढंग से ओशो को देखना, सुनना. ओशो को अहोभाव से पढ़ना. यद्यपि अहोभाव की उनको जरूरत नहीं. ऐसे नहीं सुनना, जैसे फैशन के लिए आप ओशो को सुने. ओशो को सुनना फैशन नहीं होना चाहिए. ओशो को फैशन के लिए सुनना ओशो जैसे परमतत्त्व का अपमान है. ओशो को स्वभाव से सुनो. क्योंकि स्वभाव जितना आत्मा के निकट होता है उतना न मन, न चित्त, न बुद्धि निकट है. स्वभाव ही ज्यादा से ज्यादा गहरा ज्ञान करा सकता है.

बहुत सारे संत महात्मा रोज रात को ओशो का प्रचवन सुनते हैं- उनकी कैसेट अपने तकिए के नीचे रखते हैं और सुबह प्रवचन में ओशो की बातों को अपना नाम लगाकर कहते हैं. इससे बड़ा अपराध क्या होगा? भाषण में वही बोलना तथा उनका नाम तक न लेना, ‘प्रज्ञा-अपराध’ (इंटेलैक्चुअल क्राइम) है.

सही धार्मिक व्यक्ति किसी को अछूत नहीं समझता है. धार्मिक व्यक्ति कैसे किसी को अछूत समझेगा? हमें जहां से शुभ विचार मिले, उसे ग्रहण करना चाहिए. ओशो का नाम लेकर अहोभाव के साथ उनकी बात प्रस्तुत करना चाहिए. मुझे ओशो पर बोलने में बहुत आनंद आता है साहब और जिस पर बोलने में आनंद आए वही मेरे लिए भजन है, साधना है.

मैंने कई बार कहा है- ओशो ने इतने विविध विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं कि इनमें से कितने विषयों के बारे में तो मुझे मालूम ही नहीं था. मैंने कभी नाम भी सुना तक नहीं था. कृष्ण, कबीर, बुद्ध, महावीर का पता था, सुकरात, खलील जिब्रान को थोड़ा पढ़ा था, अन्य कई भारतीय संतों की जानकारी थी. लेकिन लाओत्से कौन है इसकी कोई खबर ही नहीं थी! वो तो पहली बार ओशो ने बताया… फिर सब लाओत्से पर किताबें लिखने लगे.

आपकी देह, चिंदानंदमयी देह है. आपकी देह, आपकी काया, कलेवर चिदानंदमय है. ओशो को मैंने जितना जाना, सुना; उतना ही यह भी जाना कि यह आदमी मात्र पंच भूतों का पुतला नहीं है. उसका पिंड और पांच वस्तुओं से बना है. आज मेरी आंखें 70 साल की हैं. इनमें पिछले 20 वर्षों से जो मैंने अनुभव किया है मैं वो कहना चाहता हूं कि ओशो का पिंड मुझे पांच ‘त’ से बना हुआ दिखा.

पहला ‘त’ है तर्क- वो भी कोई रूखा-सूखा तर्क नहीं, विनोदमय तर्क. और ओशो को केवल तार्किक कहना गलत होगा, ओशो का अपमान होगा.

दूसरा ‘त’ है तत्त्व- दूसरी बात जो मैंने ओशो में देखी वो थी तत्त्व. कि यह आदमी तत्त्व को, सत्य के मर्म को पकड़ता था.

तीसरा ‘त’ है तक- यानी जो वर्तमान पल है, लम्हा है, मोमेन्ट है, उसमें प्रसन्नता पूर्वक जीना.
चौथा ‘त’ है तप- ओशो का पिंड ‘तप’ से बना है. लेकिन लोगों को सिर्फ यह दिखा कि ओशो मंहगी कारों में घूम रहे हैं, हीरे जवाहरात पहन रहे हैं. ओशो का सबसे बड़ा तप यह था कि सब कुछ जानते हुए भी दुनियाभर की आलोचनाओं को सहजता से स्वीकार करना.

याद रखना- यहां किसकी आलोचना नहीं होती? लोगों का काम है सिर्फ आलोचना करना. यह सब जानते हुए भीतर की असंगता को मुस्करा कर सहन करना, यह तप ओशो के पिंड की चौथी वस्तु थी. यह तपस्या थी. अगर आप केवल उनकी गाड़ियों, हीरे-जवाहरातों के बारे में सोचेंगे तो उनके तप का अंदाजा नहीं लगा पाएंगे. ओशो ने सामान्य स्तर के भोगों की बातें नहीं कीं, उन्होंने कहा- परम भोग! परमात्मा को भोगो.

पांचवां ‘त’ है तंत्र- ओशो के विग्रह में जो मैंने देखा वो था- ‘तंत्र’. इतनी तंत्र साधना के प्रकार किसी बुद्ध पुरुष ने नहीं दिए. अगर दिए भी तो इस प्रकार सरलतापूर्वक उस विषय में किसी ने वक्तव्य नहीं दिए. यद्यपि ओशो में तंत्र की भीषणता तो नहीं थी, किंतु जानकारी गजब की थी. ओशो ने विविध रुचि वालों के लिए सभी मार्ग खोल दिए साधना पद्धतियों के.

इतना ही कहूंगा ओशो ने आचार्य रजनीश के रूप में संसार में परिभ्रमण करके हमें शिक्षा दी. पूना में भगवान रजनीश के रूप में दीक्षा दी. और अंततः ओशो के रूप में उन्होंने संसार को प्रेम की भिक्षा दी.

पीठ बहुत से होते हैं, खंड पीठ, व्यास पीठ, ज्ञान पीठ, आदि. और अब है- ओशो पीठ. ओशो प्रेमियों से मैं अनुरोध करता हूं कि जहां-जहां अवसर मिले, आप ओशो के विचार संदेश को फैलाएं. जहां भी बैठकर आप ओशो की चर्चा करेंगे, उसे व्यासपीठ नहीं, ओशो पीठ कहना.

पहले शिक्षा दी, फिर दीक्षा दी, और अब ओशो के रूप में वे पूरे विश्व को प्रेम की भिक्षा दे रहे हैं. यही मुरारी बापू के ओशो हैं.

अपने हृदय के उपरोक्त उद्गार व्यक्त कर के, इस अवसर पर मुरारी बापू जी ने ओशो पीठ के लिए एक लाख रुपये का सहर्ष दान दिया और ओशो के नाम युनिवर्सिटी की स्थापना करने का अनुरोध किया.

मुरारी बापू का ओशो पर एक प्रवचन – लिंक पर क्लिक करें

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