मान लेने की मजबूरी से जान कर रहने की ज़िद के बीच की पीड़ा से पहली बार जब गुज़रना हुआ तो लगा जैसे मेरे समर्पण ने अध्यात्म के पहाड़ से कूद कर खुदकुशी कर ली…. समर्पण की देह उस आध्यात्मिक दुनिया से बेदखल होकर शुद्ध भौतिक दुनिया के बाज़ार में आकर गिरी… और आत्मा??? वो क्या होती है.. या कैसे मान लूं कि होती है… जैसे प्रश्नों के साथ देह को पहाड़ से गिरते देखती रही….
हठ यह कि बाज़ार में गिरी देह का सौदा करना है… देह उसी को मिलेगी जो बदले में प्रेम देगा… और प्रेम किसी के पास नहीं था… क्योंकि ब्रह्माण्ड के तंत्र में पञ्च तत्व के समीकरण से उत्पन्न छठे तत्व का अस्तित्व आँखों से ओझल हो चूका था…
और मेरा हठ अपनी ही देह के हवन कुण्ड में पांच रातों तक पञ्च मकार को साक्षी बनाकर उन पाँचों तत्वों का आह्वान करता रहा….
हठ यह भी कि यदि छठे तत्व का अस्तित्व है तो प्रकट होकर दिखाएं… विद्रोही देह ने आँखें खोली और नोंच कर फेंक दी आँखों पर बंधी समर्पण की पट्टी…
किसे पता हठ योग किसे कहते हैं, लेकिन इन सारे क्रिया कलापों से अध्यात्म के पहाड़ पर खड़ी आत्मा पर शक्तिपात हुआ…
देह अब वापस ऊपर नहीं जा सकती… आत्मा के नीचे आने का सवाल ही नहीं था…
वो पांचवी रात क़यामत की रात थी… जिसके गुज़र जाने के बाद छठे तत्व ने जन्म लिया और सुबह देखा तो एक शिशु मेरे दरवाज़े पर खड़ा था.. मैंने उसे दौड़कर गोद में उठा लिया…
दसों दिशाएं एक साथ बोल उठीं… क्या जीवन से बड़ा कोई तत्व हो सकता है?
और जैसे बब्बा ने अपने सम्बोधि दिवस पर आकर कहा – माँ जीवन शैफाली .. मैंने तुम्हें यह नाम यूं ही तो नहीं दिया है…
और कहने लगे तुम जिसे आत्मा और देह के बीच का अंतर समझ रही थी… वो आकाश यात्रा का एक हिस्सा है…. जिसे तुम जी चुकी हो…. अब दिखने वाले हर दृश्य को वर्तमान नहीं समझो.. ये भविष्य की वो झलकियाँ हैं जिसके पूर्वदृश्य (FLASH BACK) में तुम जी रही हो!
और जैसे एक आकाशवाणी हुई …
उस खोज का कोई पहरेदार नहीं होता जिसके मजबूत किले में रहस्यात्मकता को सात गलियों के पार सात तालों में बंद कर के रखा जाता है… यूं तो सुगंध को चाहे कितने ही तालों में बंद कर दो.. उसको सूंघने की क्षमता रखता खोजी उस तक पहुँच ही जाता है…
रहस्यमयी सुगंध नहीं है, रहस्यमयी उस सुगंध तक पहुँचने का रास्ता होता है…
जीवन की भूलभुलैया पर अनुभव के तीर बनाते हुए तुम कितना ही आगे बढ़ जाओ जब उस सुगंध तक पहुंचोगे, तो सारे तीर तुम्हारे पैरों तले बिछे होंगे जिसकी शैया पर लेटी तुम्हारी “जान के रहूँगा” की भीष्म प्रतिज्ञा धराशायी पड़ी होगी…
जानने और मानने की दो धाराओं के बीच समर्पण का सेतु बनाकर आर या पार का खेल भी तुम नहीं खेल सकोगे… क्योंकि तुम्हारे ऐसा “लगने” और वास्तव में वैसा ही “होने” के बीच का सफ़र कल्पना के उड़न खटोले में बैठकर तय नहीं हो सकेगा…
ज़मीनी सच्चाइयों के पदयात्री ही आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुँचने वाली “क्रियाओं” को “जान” पाते हैं…. लेकिन ये जान सकने वाली तीसरी आँख की पलकें खोलने के लिए भी तुम्हें ये तो “मानना” ही होगा कि मूलाधार में हो रही हलचल देह की उत्तेजनाओं के फलस्वरूप नहीं, वह उस क्षण के “फूल-स्वरूप” है जिसकी सहस्त्रों पंखुड़ियां तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा में बंद पड़ी है…
आओ कि तुम्हारी खोज के दरवाज़ों के सारे पहरेदार अब घट चुके हैं… और हट भी चुके हैं… आओ कि रास्ता सुलभ है और उस सहस्त्रों पंखुड़ियों वाले कमल की खुशबू तुम्हारी नासिका के दोनों पट खोल चुकी है… तुम्हारी सुशुप्त सुषुम्ना को जाग्रत करो…
जागते रहो कि सोने का समय अब समाप्त हो चुका है… अब दिखने वाले हर दृश्य को स्वप्न नहीं समझो.. ये भविष्य की वो झलकियाँ हैं जिसके पूर्वदृश्य (FLASH BACK) में तुम जी रहे हो!