मोदी जी ने जिन्हें दिव्यांग कहा है उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए कुछ रियायत तो मिलना ही चाहिए. वो एक मदद होती है उनका हौसला बढ़ाने के लिए. लेकिन सब बराबरी से चल सके इसलिए स्वस्थ लोगों को दिव्यांग नहीं बनाया जाता..
प्रकृति खुद “Survival of fittest” के सिद्धांत पर कार्य करती है… जंगल का वही शेर राजा बनता है जो सबसे ताकतवर होता है, कक्षा का मॉनिटर सबसे तेज़ बच्चे को बनाया जाता है.. घर का मुखिया सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति होता है या फिर वह जो घर में सबसे अधिक कमाई लाता है, या फिर जो घर में सबसे बड़ा बेटा होता है, यहाँ अपवाद रूप से बेटी भी ले सकते हैं, चूंकि आज भी घरों में बेटी की कमाई केवल मजबूरीवश ही उपयोग में लाई जाती है वर्ना तो वो उसके सुरक्षित भविष्य या व्यक्तिगत खर्चे के लिए बचा ली जाती है… घर में एक से ज़्यादा बेटे हो तो भी सब अपना अपना परिवार और सुख सुविधा देखते हैं.. सब लोग पिता को कमाई नहीं दे देते कि अब आप अपने हिसाब से सबको बाँट दो…
जो बच्चा अधिक बुद्धिमान होगा उसे डॉक्टर या इंजिनियर बनाने के लिए पिता अधिक खर्च करेंगे, जो बेटा पढ़ाई में कमज़ोर होगा उसके बी. कॉम पढ़वा कर संतुष्टि कर लेंगे… ये नहीं कि बराबरी के चक्कर में छोटे को तो बड़ा कर नहीं सकते तो बड़े की ही गर्दन काटकर छोटा कर दो….
किसी कंपनी में भी उसी की उन्नती होती है जो कंपनी को अधिक से अधिक फायदा पहुंचाए… किसी युनियन का वही लीडर बनता है जिसके सिद्धांत स्पष्ट हो, प्रखर वक्ता हो, जो सबकी सुनता हो… काम में कोताही बरतने वाले हमेशा पीछे रह जाते हैं…
फिर सबको एक ही तराजू में तौलकर जो अधिक की पात्रता रखता हो उसके साथ हम अन्याय कैसे कर सकते हैं… सोशल मीडिया का ज़माना है… फेसबुक पर जो अच्छा लिखता है वो अधिक पढ़ा जाता है… जुकरबर्ग यदि वामपंथी विचारधारा का हो जाए और रोज़ मिलने वाले लाइक्स और शेयर को दिन के अंत में सबमें बराबरी में बाँट दे तो क्या होगा?
बहुत बेसिक बातें बताई मैंने…
शायद मेरा ज्ञान कम हो वामपंथ विचारधारा के बारे में… तभी तो मैं एक वामपंथी की नज़र में अल्पज्ञानी कही जाऊंगी.. खुद एक वामपंथी मुझे अल्पज्ञानी कहकर मुझसे बौद्धिक समानता का अधिकार छीन लेगा…
फिर हम किस स्तर पर समान है? मानवीय स्तर पर? नहीं, वहां भी नहीं… कोई योगी है, कोई आम मनुष्य, कोई आतंकवादी… सबके लिए समान भाव भी पैदा नहीं होता….
हाँ हम एक स्तर पर समान है वो है हमारा अस्तित्व… हम सबका अपना अस्तित्व है, अपनी अपनी यात्रा के साथ हम प्रकृति के लिए समान है… लेकिन यहाँ वामपंथी, अस्तित्व को भी एक वाद का रूप देकर अपनी उस चोट से मवाद निकालता रहता है जो उसे बार बार एक बात से लगती है…
कि आखिर ऐसा कौन सा रहस्य “हमारे” पास है जिसका पता उन्हें किसी भी तरह नहीं चल रहा, जिस पर सनातन काल से हिन्दू जीवन शैली टिकी हुई है…
कि सारे गुण दोष की विवेचना के बाद भी जिसकी नींव को टस से मस नहीं कर सकी ये आयातीत वामपंथी विचारधारा..
कि किस तरह हिंदुत्व का झंडा उठाये हुए भी हम वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत पर हर युग में खरे उतर जाते हैं…
उन्हें क्या बताएं जिस जिस ने इस रहस्य को जाना वो उस escape velocity को पा गया कि तुम्हारा वामपंथ उसे पकड़कर नहीं रख सका. क्योंकि तुम बहुत सीमित हो अपने खोखले शब्दों के साथ और ब्रह्मा का रचा ये ब्रह्माण्ड बहुत विस्तृत है उसके पूर्ण अर्थों में…