हरगिज़ मत कीजिये घोषित बेवकूफ़ों की नक़ल

पुराने ज़माने, अर्थात हमारे स्कूल-कॉलेज के ज़माने में हमारे घर के बड़े बुजुर्ग चाहते थे कि बच्चे स्वाबलंबी बनें. तो हम लोगों को हर फॉर्म खुद भरने छोड़ दिया जाता. बैंक से पैसे निकालने भी अक्सर रवाना कर दिया जाता था.

अब जब बैंक में चेक के साथ फॉर्म भरकर पहुंचें तो 1996 वगैरह के ज़माने में बैंककर्मी घूर कर ऊपर से नीचे तक देखता था. उन्हें हमेशा शक रहता था कि कहीं फर्जी सिग्नेचर मार के ये बच्चा पांच-छह हजार निकाल के घर से भागने की तो नहीं सोच रहा ?

तो इस वजह से हमारा फॉर्म बिलकुल माइक्रोस्कोप से जांचा जाता. ऊपर से नीचे तक गलती की हर संभावना ढूँढ़ते ताकि फॉर्म रिजेक्ट किया जा सके. मतलब तीसरा महिना होता तो तीन के आगे जीरो भी लिखवाते थे तारिख में. दो तीन बार साइन तो करवाते ही थे.

बहुत दिक्कत होती, लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि प्लस टू पार करते करते हमें फॉर्म भरना बिलकुल सही सही आ गया. ब्लैक डॉट पेन, वन-फोर-नाइन लिखने का डिजाईन, कैपिटल लैटर, मैचिंग सिग्नेचर, नो ओवरराइटिंग, फुल सरकारी पैंतरे.

अब जब इंटरमीडिएट के बाद कॉलेज के फॉर्म में ड्राफ्ट लगाने की बारी आई, तो मित्रों में से कई को फॉर्म भरना नहीं पता था. चुनांचे वो भी मेरे ही साथ बैंक पहुंचे. मौसम के हिसाब से बैंक वालों को पहले ही पता था लौंडे किसलिए आये होंगे तो फॉर्म थमाते थमाते ही क्लर्क महोदय ने बाकियों से कह दिया, इसे देख कर भर लेना.

अब मेरे फॉर्म में देख-देख कर जो-जो लिखा था वो सबने कॉपी किया. हम सौ के इतने, पचास के इतने नोट वगैरह भरकर पलटे और बाकियों से पूछा, हो गया? अब जब दोनों ने फॉर्म दिखाया तो हमने सर पीट लिया! सिग्नेचर की जगह जहाँ हमने फॉर्म पर बढ़िया सा आनंद कुमार ठोक रखा था, वहां बाकियों ने अपने फॉर्म पर खुद के दस्तख़त के बदले भी आनंद कुमार ही कॉपी कर डाला था.

नहीं-नहीं, बिलकुल गधे नहीं थे ऐसा करने वाले. दोनों ने बी.आई.टी. मेसरा से इंजीनियरिंग की और दोनों फ़िलहाल अमेरिका में कहीं-कहीं काम भी कर रहे है. जब सिग्नेचर भी कॉपी करते देख लिया तो मान लिया कि बाकी चीजों में ना भी हो, नक़ल के लिए तो अक्ल जरूर चाहिए. अब जैसे सोवियत रिपब्लिक ऑफ़ रूस के कॉमरेड रूस से प्यार करते थे, माओ वाले सोवियत, रिपब्लिक ऑफ़ चीन वाले चीन से तो इसका मतलब ये थोड़ी हुआ कि भारत वाले भी रूस और चीन से प्यार करना सीखें. अपने देश से कीजिये कॉमरेड, सिग्नेचर थोड़ी ना कॉपी करता है कोई!

बीस साल पहले सिग्नेचर कॉपी करने वालों का क्या हुआ ये इसलिए बताया है क्योंकि कुछ लड़के रोहित वेमुल्ला की नक़ल करने की कोशिश भी करते हैं. पहले नक़ल के चक्कर में रोहित वेमुल्ला से देश-धर्म छूट गया, फिर एक पार्टी से उनकी आस्था दूसरी तरफ शिफ्ट हुई. अंत में उन्हें लगने लगा कि “उनकी आत्मा मर गई है”, “वो इंसान से राक्षस होते जा रहे हैं”.

बोर्ड की परीक्षाएं भी चल रही हैं, और सुनने में आया है कि फिजिक्स का पेपर टफ भी था. ऐसे में जो निराशावादी, हर तरफ जोर जुल्म देखने वाले, हारे हुए लोग हैं उनको फॉलो करने के बदले, जो अच्छी बातें करें उनको फॉलो करना चाहिए. बोर्ड के नंबर परमानेंट जरूर हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता, लेकिन इम्पोर्टेन्ट हैं या नहीं ये आप तय करते हैं.

जुकरबर्ग के बोर्ड का मार्क्स इम्पोर्टेन्ट है क्या, फेडरर का किसी को पता है, फिफ्टी सेंट्स का, अम्बानी का, अनु मालिक – सोनू निगम का, विद्या बालन-दीपिका पादुकोण का ? जो मंगलयान भेजने वाली महिलाऐं न्यूज़ में दिखी थीं, उनके मार्क्स पूछ लेने की हिम्मत है क्या? एच.सी.वर्मा जिसकी किताब से पढ़ते हैं, उनका पूछा है कभी किसी ने?

बाकी बेवकूफी भरे तरीके से नक़ल मत कीजिये, अपनी अक्ल लगाइए, और हाँ, जो पहले ही घोषित हैं, ऐसे बेवकूफ़ों की नक़ल तो हरगिज़ मत कीजिये.

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