कोई नहीं जानता – शिवरात्रि के दिन मध्यप्रदेश के दतिया जिले की सिंध नदी पर जिस समय आसपास के गाँवों में हज़ारों की गिनती में लोग आकर पर्व मना रहे थे- उस समय लाल किनारी की सफ़ेद धोती में लिपटी हुई एक परदेसी औरत सिंध नदी के सनकुएँ में खड़े होकर ईश्वर नाम की शक्ति से क्या मुराद मांग रही थी…
लोग सिंध नदी का जल इतना पवित्र मानते हैं कि आसपास के गाँव वाले शिवरात्रि को कांवर भरने आते हैं. कांवर एक बहंगी सी होती है जिसके मोटे डंडे में दोनों तरफ दो मटकियाँ भरी रहती हैं. ऊपर से इसे साफ़ कपडे से ढंका और सजाया जाता है, दोनों तरफ फूलों के हार भी लटकाए जाते हैं. और सिंध नदी में मटकियाँ भरने के बाद जब लोग कांवर को अपने अपने गाँव ले जाते हैं तो रास्ते में सांस लेने के लिए भी इसे धरती पर नहीं रखते. रास्ता चाहे कितना भी लंबा क्यूं न हो साथियों से कंधा बदल लेते हैं पर कांवर को भूमि पर नहीं रखते. वे सारे समय चलते रहते हैं, और शिव की स्तुति गाते रहते हैं-
बेनू ने सिंध नदी में पैर डालने से पहले जब एक कांवर जाते देखी, शिव स्तुति सुनी साथ ही सुनी मनुष्य जीवन की असारता, उसका मन भर आया….. कुछ लोग कांवर उठाए गा रहे थे-
बड़े भए तो का भए, जैसे पेड़ खजूर,
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
बोलो कि भाई बम बोलो……
बेनू मानो हज़ारों विचारों में से गुज़र गयी हो- एक वह कांवर भी है जो किसी को दिखाई नहीं देती….. मैंने बरसों बीत गए, प्यार की नदी से आँखों की मटकियाँ भरी थीं…… आज तक उन्हें भूमि पर नहीं रखा है….. इस बहंगी को कंधे पर उठाए घूम रही हूँ….. सिर्फ चुप हूँ, बोल नहीं सकती…..
और बेनू का मन आराधना में बंध गया- हे शिवशक्ति! क्या मेरी लगन का कोई फल नहीं? क्या मेरे प्यार की नदी तेरी सिंध नदी जैसी नहीं?…… ज़िंदगी अकारथ ही सही… खजूर का पेड़ ही सही…. मेरा हाथ नहीं पहुंचता, न सही….. मुझे उसकी छाया नहीं चाहिए…. सिर्फ उस पर फल लगा दो!….. दूर का फल…. जिसे मैं नहीं तोडूँगी…. मैं नहीं खाऊँगी…..
सिंध नदी की कथा सुनाते हुए शिव मंदिर के पुजारी ने बेनू को बताया- “ब्रह्मा के चार मानस पुत्र हैं- सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार- वे वहाँ आए. यहाँ मीलों तक कहीं पानी नहीं था. वे तपस्या करने बैठ गए. यह उनकी तपस्या का प्रताप था कि दूर बहने वाली सिंध नदी ने अपनी धारा बदल दी, और मीलों का चक्कर काट कर वह मानस पुत्रों के चरणों में बहने लगी….”
और बेनू लाल किनारी की सफ़ेद धोती में लिपटी, सिंध नदी के सनकुएँ में खड़े होकर, हाथ फैलाकर, ईश्वर की शक्ति से माँगने लगी, – “मैं सारी ज़िन्दगी प्यासी रही हूँ, प्यासी रहूँगी, मैं उसकी ज़िंदगी के पानी को मुंह से नहीं लगाउंगी पर उसकी ज़िन्दगी का पानी उसे लौटा दो…
हम भी मानस पुत्र हैं, मेरे ईश्वर! दोषों से भरे हुए, मोह से, क्रोध से, अहंकार से भरे हुए… पर हमारे भी सुख दुःख हैं…. हम भी तपस्या करते हैं…. अपनी समझ से जैसा भी ढंग हमें आता है… जैसी भी समझ तुमने हमें दी है…. हम भी तुम्हारे मानस पुत्र हैं, बड़े नगण्य ही सही… किस्मत की नदी का रुख मोड़ दो… मालिक!… मैं और कुछ नहीं मांगती … किसी और जन्म में मांगूंगी…. इस जन्म में बस इतना दे दो….. वह जीता रहे….. मैं चाहे सारी उम्र उसे न देख सकूं….”
और बेनू ईश्वर से सौदा भी करती रही, हठ भी, प्रार्थना भी…..
बेनू ने लौंगवती के साथ एक ही थाली में खाना खाते समय उसके पति शिवचरण ठाकुर से पूछा- “दाऊ! मैं तो पढी लिखी नहीं हूँ, तुमने तो वैद भी पढ़े होंगे, यह बताओ कि ब्रह्मा के ये पुत्र मानस-पुत्र किस तरह से हुए? देवताओं के घर मानस पुत्र कैसे जन्में?
शिवचरण ठाकुर हंस दिया! बोला, “यहां सब यही कहते हैं. कोई इनकी जननी का नाम नहीं जानता. शायद वह धरती की औरत हो…. तुम्हारे जैसी, लौंगवती जैसी…’ और फिर गंभीर होकर उसने कहा- ‘असल में शब्द मानस पुत्र नहीं मानसिक पुत्र है….’ बेनू के हाथ का कौर हाथ में ही रह गया… बोली-‘फिर तो बात और भी कठिन हो गयी…. क्या शारीरिक पुत्र और होते हैं, मानसिक पुत्र और?”
शिवचरण ठाकुर ने अभी कोई उत्तर नहीं दिया था कि लौंगवती हंसने लगी और बोली, “तुझे मैं बताती हूँ…”
जैसे सरन मेरा शारीरिक पुत्र है… अब जब चन्दन सिंह जेल से छूटकर आएगा, आकर ब्याह करेगा, अब तू तो उसे मिल नहीं सकती, कोई और ही मिलेगी, फिर उसके घर जो पुत्र जन्म लेगा, वह तेरा मानसिक पुत्र होगा… ” इस घड़ी बेनू को शारीरिक पुत्र और मानसिक पुत्र का फर्क नहीं छू सकता था, शायद कभी भी नहीं छू सकता था, पर इस घड़ी तो निश्चित रूप से नहीं….
शिवचरण ठाकुर उसके पीठ पीछे लौन्गवती से कहता, … “मानस पुत्रों के तप की कथा तो लोग हमेशा जानेंगे, पर एक मानस पुत्री ने कैसा तप किया, यह बात कोई नहीं जानेगा…… “
अमृता प्रीतम की पुस्तक कोई नहीं जानता का उपरोक्त अंश पढ़कर मुझे लगा इस मानस पुत्री ने कैसा तप किया, यह बात भी कोई नहीं जानेगा….
यह एक पंक्ति मैंने कई कई बार पढ़ी और जैसे किसी लम्बी यात्रा के बाद थकान से चूर होकर, सूने वीरान रेगिस्तान में कोई इकलौता पेड़ दिखा जाए, ये पंक्ति उसी इकलौते पेड़ की तरह लगी और अपने शरीर सहित मेरी चेतना निढाल होकर घुटनों के बल वहीं बैठ गयी… दिन भर वो पेड़ मुझे सुकून की छाँव देता रहा…
और क्यों न देता मैं भी तो एक मानस पुत्री हूँ और मेरी पीड़ा को मेरी मानस माँ एमी के अलावा कोई और कैसे समझ सकता था, कोई और गोद कैसे सुकून दे सकती थी!!!
तो जब 13 नवम्बर 2009 को गृहप्रवेश के बाद पहली होली पड़ी तो पूरे दिन ऊपर वाली मंजिल पर अपनी मानस माँ की गोद में सर रखकर आंसुओं से भीगती रही… क्योंकि रंगों से भीगने का सपना तो ससुरजी के इस वाक्य के साथ सपना ही रह गया था कि “आज आप ऊपर वाली मंजिल पर ही रहना, घर में मेहमान आएँगे होली पर अभी आप सामने मत आइयेगा”
मैं बस “जी”…. कहकर रह गयी… लेकिन जी तो हुआ कि बस यहीं खड़े खड़े धरती में धंस जाऊं… मेरे फकीर स्वामी ध्यान विनय का घर तो बहुत बड़ा था लेकिन मेरे लिए अभी इस घर में धरती में समा जाने जितना भी स्थान न था…
हे शिवशक्ति! क्या मेरी लगन का कोई फल नहीं? क्या मेरे प्यार की नदी तेरी सिंध नदी जैसी नहीं?…… ज़िंदगी अकारथ ही सही… खजूर का पेड़ ही सही…. मेरा हाथ नहीं पहुंचता, न सही….. मुझे उसकी छाया नहीं चाहिए…. सिर्फ उस पर फल लगा दो!….. दूर का फल…. जिसे मैं नहीं तोडूँगी…. मैं नहीं खाऊँगी…..
आज आठ साल बाद जब मोहल्ले में होली खेलने जाने से पहले पापा ने मुझसे कहा घर में मेहमान आएँगे तैयारी रखना, रंग मिठाई फल सब बाहर आंगन में ही रख देना…
एक बार फिर मैंने कहा – “जी” …. लेकिन जी से जी तक की इस आठ साल की यात्रा में इस जी पर क्या क्या गुज़रा ये कोई धरती की औरत ही जान सकती है…
2017 की होली…. आज घर में कोई नहीं था… बच्चे, बच्चों के पापा और दादा सब कॉलोनी में होली खेलने निकल गए थे…. और मैं… बार बार अम्मा की फोटो को देखती रही… दौड़ दौड़ कर तैयारी करती रही….
फिर थोड़ा-सा गुलाल हाथ में लेकर अम्मा की फोटो पर लगाया… एक बार फिर जी भर आया… अम्मा पूरे आठ साल लगे मुझे पूरी तरह इस घर की बहू बनने में… अम्मा की आँखों में जवाब था… सिर्फ तुम ही नहीं, हर औरत इस धरती की बेटी है, जिसके जी में धरती सा धैर्य न हो तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाए…
हम औरतें सच में प्यार की नदी से आँखों की मटकियाँ भरती हैं… बरसों बीत जाए… उन्हें भूमि पर नहीं रखतीं… हम जीवन भर बहंगी को कंधे पर उठाए घूमती हैं… रास्ता चाहे कितना भी लंबा क्यूं न हो….
दतिया गाँव…. माँ पीताम्बरा….. सिंध नदी का जल… एमी का अपनी पुस्तक में उसी का ज़िक्र…. न जाने क्या रिश्ता है मेरा इन सबसे….
पापा के पास बैठकर फोटो खींचवाते हुए लगा जैसे प्रेम से भरी इन मटकियों को पूरे आठ साल बाद कंधे से उतारकर बैठी हूँ…
पता नहीं मेरी कौन सी तपस्या का प्रताप था कि दूर बहने वाली सिंध नदी को यदि मैं सामाजिक स्वीकृति कहूं तो उसने जैसे मेरे लिए अपनी धारा बदल दी, और मीलों का चक्कर काट कर वह मेरे दो पुत्रों के चरणों में बहने लगी है…
लेकिन इस घड़ी मुझे भी शारीरिक पुत्र और मानसिक पुत्र का फर्क नहीं छू सकता, शायद कभी भी नहीं छू सकेगा, पर इस घड़ी तो निश्चित रूप से नहीं…
इन दो शारीरिक पुत्रों के अलावा मेरा एक मानसिक पुत्र भी तो किसी माँ की गोद में पल रहा है… पिछली इंदौर यात्रा में जिसकी झलक देखकर आई थी… अगली बार उसका भी ज़िक्र करूंगी…
हम धरती की औरतें…. हर रूप में सबसे पहले माँ ही होती हैं…