शहरों के मौन को तोड़ने के लिये ज़रूरी है होली

होली भारतीय समाज में लोकजनों की भावनाओं की अभिव्यक्ति का आईना है. यहां परिवार को समाज से जोड़ने के लिये होली जैसे पर्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. समाज को एक-दूसरे से जोडे रखने और करीब लाने के लिये होली जैसे पर्व आज समाज की जरूरत बन कर रह गये है.

आधुनिकता की दौड़ में शहरों में व्यक्ति भावना शून्य हो गया है. गांवों में एक और जहां किसी एक व्यक्ति के बीमार पड़ने पर सभी ग्रामीण हाल चाल पूछने आते हैं. किसी एक पर विपदा आने पर वह विपदा पूरे गांव की होती है. इसके विपरीत शहरों में साथ वाले फ़्लैट में कौन रहता है, यह जानने में भी कई बरस लग जाते हैं. सभी मायनों में देखा जाये तो आज होली की जरूरत शहरों के इस मौन को तोड़ने के लिये सबसे अधिक है.

भारत के सभी त्यौहारों पर कोई न कोई खास पकवान बनाया जाता है. खाने के साथ अपनी खुशियों को मनाने का अपना ही एक अलग मजा है. इस दिन विशेष रुप से ठंडाई बनाई जाती है. जिसमें केसर, काजू, बादाम और ढेर सारा दूध मिलाकर इसे बेहद स्वादिष्ट बना दिया जाता है. ठंडाई के साथ ही बनती है, खोये की गुजिया और साथ में कांजी इन सभी से होली की शुभकामनाएं देने वाले मेहमानों की आवभगत की जाती है. और आपस में बैर-मिटाकर गले से लगा लिया जाता है. दुश्मनों को भी दोस्त बनाने वाला यह पर्व कई दोनों तक सबके चेहरों पर अपना रंग छोड जाता है.

होली का पर्व सूरज के चढने के साथ ही अपने रंग में आता है. होली खेलने वाली की टोलियां नाचती-गाती, ढोल- मृ्दगं बजाती, लोकगीत गाती सभी के घर आती है, ओर हर घर से कुछ जन इस टोली में शामिल हो जाती है, दोपहर तक यह टोली बढती-बढती एक बडे झुण्ड में बदल जाती है. नाच -गाने के साथ ही होली खेलने आई इन टोलियों पर भांग का नशा भी चढा होता है. जो सायंकाल तक सूरज ढलने के बाद ही उतरता है.

होली की टोली के लोकगीतों में प्रेम के साथ साथ विरह का भाव भी देखने में आते है. इस दिन होली है………की गूंज हर ओर से आ रही होती है.

कई जगह होली की शुरुआत होली से आठ दिन पहले हो जाती है. फाल्गुन मास की सप्तमी तिथि से ही होली शुरु हो जाती है, जो धूलैण्डी तक रहती है. होली मस्ती, उल्लास के साथ साथ विशेष अंदाज समेटे हुए हैं.

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है. राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है. फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं.

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