अजीब सी चीज़ों पर भरोसा होता है. परियां सचमुच में होती हैं, पलंग के नीचे कोई पकड़ने वाला भूत भी छुपा होता है. माइ डैडी स्ट्रोंगेस्ट भी होते हैं, मेरी मम्मा सबसे खूबसूरत भी होती है.
सवाल ज्यादा नहीं होते, जो होते भी हैं उनका जवाब ढूँढने ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ता. माँ सब जानती है, उनसे पूछा जा सकता है.
बाकी और लोग भी होते हैं घर में, क्या, क्यूँ, कैसे, कहाँ जैसे जो भी सवाल सूझे, आसपास जो भी दिखे उनपर वो सवाल दागे जा सकते हैं.
बचपन मासूम होता है.
ऐसे ही मासूम से बचपन का जिक्र है जब श्लोक में संध्या के दीप जलाने का जिक्र आता है.
माँ दीप जला कर अपनी छोटी सी बिटिया को बुलाती है और कहती है “प्यारी बिटिया, अपने पिता और अन्य सभी को प्रणाम करो!”
मासूम सी बच्ची अपनी माँ को प्रणाम करती है, पिता को भी, दादा, बड़े भाइयों, बड़ी बहनों, नौकरों को भी प्रणाम करती है, और फिर घर में आने वाली बिल्ली को भी प्रणाम करती है, और पिंजड़े में बंद तोते को भी प्रणाम करती है.
बचपन की मासूमियत सबको एक ही तराजू में तौलती है, सम्मान पर सबका बराबर का हक़ है.