वो कहते हैं #मनुस्मृति हजारों साल पहले लिखा दिमागी खलल है…. उसे जलाना ही उचित है…. ये जो तुम्हें काफ़िर कहते हैं उनके ग्रन्थ में तो न जाने क्या उल-जुलूल लिखा है… है “हिम्मत” जलाने की? नहीं ना… क्योंकि हम जानते हैं जो किसी धार्मिक व्यक्ति पर वास्तव में अवतरित होता है वही असली सन्देश होता है बाकी जब उसे किताब का रूप दे दिया जाता है तो लिखने वाला देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उसमें बदलाव करता रहता है… इसलिए उसे जलाने से कोई फायदा नहीं, इसीलिए हम उनके धर्मग्रंथों की पूजा नहीं करते, लेकिन फिर भी मजारों और दरगाओं पर उतनी ही श्रद्धा से चादर चढ़ाते हैं… उस निराकार को पूजते हैं जो सबके लिए एक है…
और दूसरी बात ये कि हम हर धर्म के धर्मग्रंथों का सम्मान करना जानते हैं और ये भी जानते है कि दूसरे के धर्म ग्रंथों का तो नाम तक लिया तो तुम्हारी जुबान काट दी जाएगी… ये जज़्बा लाओ अपने ग्रंथों के लिए… घर का बूढ़ा लाचार हो जाता है तो उसे घर से निकाल नहीं दिया जाता… उस समय यही बूढ़ा जब सक्षम था तो तुम्हारा पूरा परिवार चलाता था… उसकी प्राकृतिक मृत्यु की प्रतीक्षा करो ये नहीं कि “यदि” काम का नहीं रहा तो पहले ही श्मशान घाट जाकर आग लगा आए…
और वैसे भी हर चीज़ की समय के अनुसार प्रासंगिकता होती है… आज ज़रूरत नहीं है तो धरोहर समझकर संभालकर रख लो…
एक तरफ खुद को दलित बताकर आरक्षण की भीख मांग रहे हो दूसरी तरफ उसी व्यवस्था के विरोध में किताबों को आग लगा रहे हो?? पहले तय तो कर लो तुम आखिर चाहते क्या हो? अपनी आने वाली जनरेशन को दिखाने के लिए क्या बचेगा तुम्हारे पास … कृष्ण की नहीं इस “कन्हैया कुमार” की “लीलाएं” दिखाओगे?
आज ही एक मित्र (सुशोभित सक्तावत) की शिकायत थी कि हमारे यहां फिल्मों के संरक्षण की कोई संस्कृति नहीं रही है. अच्छी-अच्छी फिल्मों के प्रिंट या तो नष्ट हो गए हैं या बदहाल स्थिति में हैं. भारत की पहली टॉकी “आलमआरा” का कोई प्रिंट नहीं है. 1977 में आई “गोधूलि” तक का प्रिंट उपलब्ध नहीं है. उसमें अभिनय करने वाले नसीर ख़ुद उसे खोज रहे हैं. हां, इसका कन्नड़ संस्करण ज़रूर उपलब्ध है. पवन मलहोत्रा “सलीम लंगड़े पे मत रो” का प्रिंट खोजते फिरते रहे. “अल्बर्ट पिंटो” का ही कोई उम्दा प्रिंट अब उपलब्ध नहीं. “देबशिशु”, “मैसी साहब”, “27 डाउन”, “दीक्षा”, “गमन”, “गोदाम”, “एक डॉक्टर की मौत”, “पार्टी” जैसी फिल्में अगर आप सलीक़े से देखना चाहें तो ढूंढे नहीं मिलेंगी. आप में से किसी ने श्याम बेनेगल की “सुसमन”, “समर” या “अंतर्नाद” की डीवीडी कहीं देखी हो तो बताइयेगा. मृणाल सेन की “जेनेसिस” खोजता हूं, वह कहीं मिलती ही नहीं. हममें से बहुतों ने इनमें से अधिकतर फिल्मों को दूरदर्शन पर (बहुत संभवत:, ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर) देखा था और उसी की धुंधली याद अब हमारे ज़ेहन में है.
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जब हम फिल्मों की प्रिंट्स तक को संभालकर रखने योग्य नहीं है तो इन ग्रंथों को क्या संभालेंगे… #मनुस्मृति को दिमागी खलल कहने वालों के अनुसार उसे धर्म ग्रन्थ कहना भी उचित नहीं… “धर्म” का अर्थ जिनके लिए “मज़हब” और “रिलिजन” से ज्यादा कुछ नहीं वो धर्म ग्रन्थ की बात करते हैं?
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“धर्म” का कोई पर्यायवाची किसी भाषा में खोज कर दिखा दीजिये तो मैं इस दिमागी खलल को अपने हाथों से जलाऊंगी और संभालकर रखूँगी वो सारे ब्लू फिल्मों के प्रिंट्स जो हमारे महान समाज की परम्परा के विरुद्ध हैं लेकिन फिर भी हम चार दिवारी में बंद होकर उसका रसास्वादन करने के अपने लोभ का संवर्धन नहीं कर पाते…
तब भी यही कहा था… अब भी यही कहूंगी हम “सहिष्णु” ही नहीं “संस्कारी” भी है… अपने ग्रंथों को जलता देखने की सहिष्णुता है तो दूसरे के ग्रंथों को न जलाने के संस्कार भी…
जो अपने संस्कार बचाए रखेगा उस पर ही धर्म अवतरित होगा.. “धर्म” का वास्तविक अर्थ तो जानते ही होंगे न!!