फ़िल्म समीक्षा : बद्रीनाथ की दुल्हनिया

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महिलाओं की स्वतंत्रता, उनकी इच्छाएं, उनकी चाहतें, उनकी भावनाएं आदि पर कुठाराघात पारंपरिक समाज से लेकर आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी धक्के खाते चला आ रहा है. इनको प्रोत्साहित करने में हमारी आज की यंग पीढ़ी भी अपनी ऊर्जा खपाती रहती है. तरह तरह के तरीकों से इसे सही साबित करती रहती है. 1936 का गोदान भी पीढ़ी संघर्ष और प्रेम प्रसंग को अपने भीतर समाहित किये हुए है.

आज भी हमारे समाज में ज्यादातर लड़कियों को अपनी मर्जी से जीने या पसंद चुनने का अधिकार नहीं है. शादी के बाद लड़की के सपने पति के मर्जी पर टांग दिए जाते हैं और लड़की की स्थिति खूंटी में बंधी बकरी की तरह हो जाती है.

शशांक खेतान निर्देशित फिल्म बद्रीनाथ की दुल्हनिया भी एक रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है. फिल्म का डायमंड पक्ष मुख्य नायिका वैदेही ( आलिया भट्ट ) का अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ जीना है. उसे अपने सपनों को जिन्दा रखना है. वह खुद पर विश्वास कर जॉब की खातिर अपनी शादी के मंडप से घर छोड़ मुम्बई जाती है और फिर एयर होस्टेस बनने तक कोई समझौता नहीं करती.

फिल्म की शुरुआत में ही बच्चों के जन्म के उपरांत लिंग आधारित भेदभाव को व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी के द्वारा दिखाया गया है. जब लड़कों के जन्म को एसेट्स और लड़कियों के जन्म को लायबिलिटी माना जाता है.

फिल्म में बद्री (वरुण धवन) और वैदेही का प्रेम प्रसंग कॉमेडी को समाहित किये हुए बड़े मार्मिक शैली में प्रस्तुत किया गया है.

बद्री के पिता रूढ़िवादी सोच वाले व्यक्ति हैं. अपनी बड़े बेटे की शादी उसकी पसंद साक्षी से न कर खुद की पसंद लड़की उर्मिला से शादी करते हैं. ठीक इसी तरह बद्री की शादी भी अपने पसंद के आधार पर करना चाहते हैं. लेकिन छोटे बेटे बद्री को एक शादी के मौके पर वैदेही (आलिया) पसंद आ गई है. सो पिता को राजी करने की जिम्मेदारी बद्री के बड़े भाई पर आ जाती है.

दूसरी तरफ वैदेही आलिया भट्ट के पिता रिटायरमेंट से पहले दोनों बेटियों  की शादी करना चाहते हैं. यही उनकी चिंता की वजह है. चिंता और जिम्मेदारियों वाली चीनी चायपत्ती की घोल आलिया बहनों की उम्र और शादी के साथ जुड़ जाती है.

एक मौके पर बद्री और वैदेही में प्यार हो जाता है. शादी की तैयारियां भी हो जाती हैं. पर ऐन मौके पर वैदेही शादी के मंडप से भाग जाती है. बद्री हाथ में वरमाला लिए खड़ा रह जाता है. वैदेही अपने सपने को पूरा करने के लिए मुंबई पंहुच जाती है फिर वहाँ उसका सेलेक्शन एयर होस्टेस के लिए हो जाता है और फिर ट्रेनिंग के सिंगापुर चली जाती है.

बद्री को वैदेही के सिंगापुर होने पर पता चलते ही वह भी दोस्त सोमदेव के साथ सिंगापुर पंहुचता है. अंत में वैदेही के अपनी मर्जी से जीने को स्वीकार कर घर में उसके लिए तार्किक विरोध करता है.

फिल्म में अपने यहाँ शादी के ब्रांड एम्बेसडर “दहेज़” के रुतबे पर भी चोट किया गया है. हार्ट प्रॉब्लम के व्यंग्य से इसकी विद्रूपता पर अच्छा प्रहार किया गया है.

हमारा समाज अभी भी लड़कियों के प्रति दकियानूसी सोच और परंपरागत लिबास को ओढ़े जी रहा है  जिसमें लड़कियों को अपने पसंद के साथ जीने को अच्छा नहीं माना जाता. जॉब करना तो और नहीं.

फिल्म का प्रस्तुतीकरण बेहतरीन है. सिनेमाहॉल में कॉमेडी दृश्यों पर दर्शकों की हंसी की आवाज़ ताजगी बरक़रार रखती है. टाइम हो और अंदर से आवाज निकले तो फ़िल्म देख लीजियेगा. कह नहीं सकता आपको कैसी लगेगी पर मुझे अच्छी लगी.

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