Economic Cooperation and Development Studies (OECD) जिसे आप आर्थिक सहयोग और विकास संगठन कह सकते हैं, की नई शोध अभी आयी जो भारत के लिए चिंताजनक है.
यह संस्था विश्व के सबसे धनवान 28 देशों के सहयोग से बनी संस्था है. इस नई शोध के अनुसार 15 से 29 वर्ष के युवा वर्ग में 30% से अधिक शिक्षा, रोजगार और प्रशिक्षण से जुड़े नहीं हैं. इसका अर्थ यह है कि हम अपने बच्चों को अपने न्यायसंगत ढंग से शिक्षा नहीं दे पाये हैं.
रुक-रुक कर बार-बार देश के शिक्षा तंत्र पर प्रश्न आता रहा है. अभी PISA (The Programme for International Student Assessment) की 2012 रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा के किए गये अनुसंधान और बच्चों पर किये परीक्षण से जो तालिका बनाई गयी उसमें 74 देशों में भारत का स्थान 73वां रहा. भारत इतना आहत हुआ कि उसके बाद से भारत नें उस अंतर्राष्ट्रीय परीक्षा में न जाने का निर्णय ले लिया.
आज की OECD रिपोर्ट के अनुसार भारत के जो युवा इस प्रकार से पिछड़े हैं, उनका प्रतिशत पूरी दुनिया से दोगुना है और चीन से तीन गुना हैं. आप स्वयं अनुमान कर सकते हैं कि हम एक देश के नाते कहाँ खड़े हैं.
इस तालिका में भारत से बेहतर प्रदर्शन चीन, रूस, ब्राज़ील, अर्जेंटीना, कोलम्बिया और इण्डोनेशिया का है जबकि हमसे बदतर मात्र दक्षिण अफ्रीका का है. विश्व में 14.56% युवा अयोग्य हैं और चीन में 11.22% जबकि भारत में 30.83%.
उनके विशेषज्ञों के अनुसार भारत के श्रम नियम इसके लिए बहुत हद तक ज़िम्मेवार हैं. उनके अनुसार भारत देश में श्रमिकों को कानूनन बहुत अधिक सुरक्षा प्रदान की गयी है. जिसके कारण निगमित क्षेत्र जिसे आप corporate sector कहते हैं, श्रमिकों को प्रशिक्षण देने की जगह कामगारों को बदलने में विश्वास रखता है. जिससे वह श्रम नियमों के मकड़ जाल से बचा रहे.
अब इसके और पीछे की बात करें तो हमारा शिक्षा तंत्र ही हमारे बच्चों को आवश्यकता से अधिक सुरक्षा प्रदान करता रहता. दरअसल हम शिक्षा, साक्षरता और विद्या में अंतर ही नहीं समझ पाये.
हम चलाते तो हैं विद्यालय पर वहाँ पर बच्चों को मात्र साक्षरता दे रहे हैं. सर्वप्रथम तो यह आवश्यक है कि हम समझें कि हम बच्चों को तथाकथित स्कूल में पढ़ने क्यों भेजना चाहते हैं?
मेरे विचार से हमें अपने युवाओं को एक भारतीय मनुष्य बनने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए. अब के विध्यालय में जा कर बच्चा न तो भारतीय बन रहा है और न ही एक उत्तम मनुष्य.
घर परिवार वाले भी उसे स्कूल एक अच्छी नौकरी के योग्य बनाने के लिए भेज रहे हैं जिसमें भी हम विफल हो रहे हैं क्योंकि ASER ( Annual Status of Education Report) की रिपोर्ट के अनुसार 90% से अधिक पढे लिखे युवा रोजगार के योग्य नहीं है.
आज कल JNU इत्यादि विश्वविद्यालय मे असामाजिक या राष्ट्र विरोधी तत्वों पर बहुत चर्चा होती है और यहाँ तक कहा जाता है कि वहाँ के अध्यापक इसी प्रकार की शिक्षा प्रदान करते हैं.
यदि सभी अध्यापक और JNU प्रशासन राष्ट्र विरोधी विचार रखते हैं और प्रचारित करते हैं तब भी मेरा इसके पीछे का एक मौलिक प्रश्न है.
इस या किसी भी अन्य विश्वविद्यालय में विद्यार्थी कम से कम 12 वर्षों की शिक्षा स्कूल से प्राप्त करके आया है. क्या हम अपने बच्चों को 12 वर्षों में राष्ट्र भक्ति नहीं सिखा पाये जो वे नए माहौल में जाते ही बागी हो गए.
मेरी मान्यता है कि हमें अपने बचपन के पाठ्यक्रम को पूर्ण रूप से हटा कर एक नए भारत के लिए नया पाठ्यक्रम बनाना चाहिए. चाहे उसके लिए एक वर्ष भारतीय युवा का लग जाये.
हमें देश के लिए सोचना है न कि अपने अपने बच्चों के विषय में. यदि देश सुरक्षित न हुआ तो सब पढ़ाई लिखाई बेकार रह जाएगी.
आज तक हम पाठ्यक्रम मे छोटे मोटे बदलाव करके किसी परिवर्तन की आशा कर रहे हैं. स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है अब आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है.