1960 में मेरे पिता जी का देहांत हुआ था. उस समय वे मात्र 38-39 वर्ष में थे. तो अम्मा उनसे 5 वर्ष छोटी यानी 33-34 वर्ष की रही होंगी.
जैसा कि हिन्दू समाज का नियम है अम्मा की भी सिन्दूर पोंछ कर चूड़ी तोडना था और फिर सफ़ेद धोती पहनाया जाना था.
परंतु तभी मेरी दादी अड़ गई कि यह नहीं हो सकता कि वे बुड्ढी होकर भी रंगीन साडी और चूड़ी पहने जबकि जवान बहू खाली हाथ और सफेद साड़ी पहने.
एक तरफ दादी मेरी माँ को अपने पीछे छिपाये और दूसरी तरफ समाज की औरतें चूड़ी तोड़कर सफ़ेद धोती लिए तत्पर…. खूब बहस हुई- धमकी भी दी गई. परंतु दादी टस से मस न हुईं. बस इस पर तैयार हुयी कि अम्मा सिंदूर ना लगाये. मगर उस हालत में दादी भी खुले में सिंदूर ना लगाकर बालो में छुपा कर सिंदूर लगाएंगी.
दादी ने इस बात का ताजिंदगी पालन किया. अम्मा हमेशा रंगीन साड़ी और चूड़ी पहनती रही. जब दादी चूड़ी बदलती तब अम्मा की भी चूड़ी बदली जाती. दादी सिंदूर बालों के इतने अंदर लगाती थी कि उसको देखना बहुत मुश्किल था.
इस कहानी को 55 साल पहले के समाज से जोड़कर देखिये तब दादी का साहस और उनके द्वारा महिला संरक्षण समझ में आएगा.
– प्रदीप शंकर