भारत में नारी कभी अशक्त नहीं मानी गयी तो महिला दिवस का क्या औचित्य

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आज भारत मे इस महिला दिवस पर सभी पुरुष और महिलाएं अपनी महिला पारिवारिक सदस्यों को, मित्रों इत्यादि को महिला दिवस की शुभकामनायें दे रही हैं. आइये इस महिला दिवस के मनाए जाने के कारण को और इतिहास को समझें. शायद फिर हमें यह लगे कि इस देश में क्या इसकी आवश्यकता है ?

इतिहास के अनुसार सबसे पहली बार इस शब्द का प्रयोग 1909 की 28 फरवरी को किया गया. 1908 में रूस में International Ladies Garment Workers Union ने एक हड़ताल की थी और इसी की याद में यह दिवस मनाया गया. उसी समय 100 महिलाएं 17 देशों से डेन्मार्क में उपस्थित हुईं.

इस प्रकार के आयोजन का मुख्य उद्देश्य कामकाजी महिलाओं को उचित अधिकार प्राप्त करवाने के लिए किया गया. पश्चिमी देशों में कुछ वर्षों तक इसी प्रकार का आंदोलन होता रहा. जर्मनी में तो 1914 में महिलाओं नें चुनाव में मत डालने के लिए भी मांग करी. जो कि 1918 में जा कर पूरी हुई.

आपके पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी महिलाएं इस प्रकार का प्रदर्शन करती रही हैं. पुर्तगाल और इटली नामक देशों में तो नारियों को अकेली महिलाओं के भोज आयोजन करने की इजाजत भी है आज के दिन. विश्व के समस्त देशों में से 27 देशों में इस दिन पूर्ण अवकाश रहता जिसमें से चीन, मासेडोनिया और मडगास्कर में यह अवकाश सिर्फ महिलाओं के लिए होता है. 1975 से संयुक्त संघ ने इसको मनाना शुरू किया है.

अब ज़रा समझें कि इसको कभी भारत में मान्यता क्यों नहीं मिली. पूरे विश्व समुदाय ने महिला को अशक्त माना और इसलिए उस पर अधिकार जताया. बरसों से सताई नारियों ने इसलिए इसका विरोध प्रकट किया. अब हमारे देश में तो नारी कभी अशक्त नहीं मानी गयी तो महिला दिवस का क्या औचित्य.

जब कभी भी एक महिला पर अत्याचार होता है तो तथाकथित सभी समाज सेवी संस्थाएं इस बात पर TV मे चर्चाएं आरंभ कर देंगी. हम भारतीय भी यह मान चुके थे कि देश के पुरुष प्रधान समाज में ऐसा ही होता है. “एमेर उ टूल” नामक पत्रकार का एक लेख आता है THE GUARDIAN में जनवरी 2013 में. कम से कम उस पर तो हमारा ध्यान जाना चाहिए था क्योंकि वह विदेशी का लिखा गया है वह भी गोरी चमड़ी के अंग्रेज़ का. पर शायद हम अपनी मानसिकता की गुलामी के नीचे इतना दबे हुए हैं या हमारा मीडिया इस समाचार को देना नहीं चाहता है.

उस पत्रकार ने लिखा आप भारत देश कि सभ्यता की क्या बात करते हैं यहाँ एक नारी पर हुए शोषण के विरोध में सारा समाज खड़ा है और आंदोलन कर रहा है कि देश में नारी के सम्मान को कैसे उठाया जाये. एक महीने तक जब तक हत्यारे पकड़े नहीं गए और कानून के शिकंजे मे नहीं आ गए पूरे देश में सकल घरेलु उत्पाद पर कोई बात नहीं, कोई डॉलर की बात नहीं, नौकरी, शिक्षा और राजनीति पर कुछ नहीं मात्र देश की नारी के स्वाभिमान की चर्चा.

उसने वहीँ पर एक और अमेरिका के स्टुबेन विले इलाके के एक 16 वर्ष की लड़की के बलात्कार की चर्चा की है. सितंबर में बलात्कार हुआ, एक पार्टी से दूसरी पार्टी उसे ले जाया जाता है. अधमरी हालत में उसे सड़क पर फेंक दिया जाता है. दिसंबर तक पुलिस केस दर्ज नहीं करती है. एक ब्लॉग लिखने वाली ने उसकी आवाज़ उठाई तो उस पर देश की छवि खराब करने का केस दर्ज किया जाता है. और फिर दिल्ली की दुर्घटना के बाद जनवरी मे केस दर्ज होता है और मार्च के महीने में कहीं दोषी पकड़े जाते हैं.

आप अमरीका, ब्रिटेन इत्यादि देशों से यदि भारत मे अपराधों कि तुलना करें. nationmaster.com नाम की एक अंतर्राष्ट्रीय वेबसाइट पर पूरे विश्व के हर प्रकार के अपराध का लेखा जोखा है. आप जान कर हैरान होंगे अमेरिका मे 25% महिलाएं कभी न कभी अपने जीवन में यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं. फ्रांस में प्रति लाख 10,277 बलात्कार, जर्मनी मे 7,292,रूस में 6,208, स्वीडन जो कि विश्व में human development index में पहले 10 स्थान पर आता है, उसमें 4,901 बलात्कार होते हैं. और भारत की गिनती है 1.7.

कुछ लोग कहते हैं कि भारत में यह केस रिपोर्ट नहीं होते हैं, हो सकता है कुछ न रिपोर्ट होते हैं परंतु कितने प्रतिशत की कमी है ? कोई सामाजिक संस्थान क्या यह करेगी ? शायद नहीं. यदि भारत के आंकड़ों को 100 गुना भी बढ़ा दें तो भी ब्रिटेन का आंकड़ा में 20 गुना है. परन्तु वहाँ यह समाचार नहीं बनाता. यहाँ यह समाचार बनाता है क्योंकि इस देश में महिलाओं की इज्ज़त है, मान हैं.

स्टीफनी लवोतामा नामक कोरियाई अर्थशास्त्री ने लिखा है कि भारत में “ अशक्त नारी” की परिभाषा की गलत है, उसके अनुसार भारत में नारी और शक्ति पर्याय हैं. फिर भी हमें इसके उल्टा पढ़ाया गया है.

यह देश जो शक्ति के लिए दुर्गा माता, धन के लिए लक्ष्मी माता और विद्या के लिए सरस्वती माता की आराधना करता है. जिस देश का स्वतन्त्रता संग्राम भारत माता के लिए लड़ा गया, जिस देश में वन्दे मातरम को राष्ट्रीय गान समझा गया उस देश में महिला क्या कमजोर है?

जिस देश में कहा गया “यत्र नार्यस्ते पूजयते रमन्ते तत्र देवता” आज भी भारत के कई मंदिरों मे पत्नी के साथ ही प्रवेश संभव है. जिस देश में यज्ञ में यजमान बनने के लिए पत्नी को साथ बैठना पड़ता है. उस देश में नारी अशक्त कहाँ से हो गयी. आपने ठीक समझा यह देश महिलाओं को कभी भी अशक्त या असहाय नहीं मानता तो यह विचार कहाँ से आया.

इस सारे फसाद की जड़ है अँग्रेजी सभ्यता जिसने हमें 200 वर्षों तक गुलाम बनाया. यूरोप और अमेरिका के दार्शनिक विचार हमें जानने पड़ेंगे.

अमेरिका देश जिसकी हम सब तारीफ करते है लगभग 1778 मे आज़ाद हो कर लोकतन्त्र बन गया परंतु आपकी जानकारी के लिए महिलाओं को वोट देने का अधिकार 1926 में प्राप्त हुआ यानि लोकतन्त्र की बहाली के 148 वर्षों के बाद.

इसी प्रकार ब्रिटेन जो संकड़ों वर्षो का लोकतन्त्र है. उसमें महिलाओं का वोट का अधिकार मिला 1924 में लगभग 800 वर्षों के लोकतन्त्र के बाद. फ्रांस में 1946 और जर्मनी मे 1945 में वोटिंग का अधिकार मिला. इन देशों को महिला सशक्तिकरण की शायद आवश्यकता थी यह भारत मे कहाँ से आई ?

क्या आप जानते हैं SWITZERLAND मे महिलाओं को यह वोट का अधिकार कब मिला? आप शायद सोच नहीं सकते उससे पहले भारत में महिला प्रधान मंत्री बन चुकी थी. इन्दिरा गांधी भारत की महिला प्रधान मंत्री बनी 1966 में जबकि SWISS महिलाओं को वोट का अधिकार मिला 1972 में.

क्या हम अपने देश को और विश्व के इतिहास को जानते हैं मेरा दावा है कि 90% से अधिक भारतीय लोग अपने देश के बारे में वही जानते हैं जो अंग्रेज़ो ने कह दिया क्योंकि पाठयक्रम मे देश के गौरव की कोई बात हमें पढ़ाई नहीं जाती.

दूसरे फैशन चल गया है कि किसी भी सभा में कोई अँग्रेजी वेषभूषा में आकार अपने देश के प्रति अपमानजनक शब्द कह दे औए अमेरिका और इंग्लंड के बारे में प्रशंसात्मक शब्द कह दे वह महान बुद्धिमान हम मान लेते हैं और कहीं अँग्रेजी में भारत और भारतवासियों को गाली दे दे तो बात ही क्या?

सभी महिलाओं से मेरा अनुरोध है इस लेख की वो बातें जो आपको बताने लायक ठीक लगें सबको बताएं जिससे हमारा देश नारियों को वही सम्मान दे जो शायद अँग्रेजी सभ्यता के कारण हम नहीं दे पा रहे हैं.

समझ लीजिये कोई भी पराया देश आपको अपने देश में गौरव की नज़र से देखने नहीं देना चाहता क्योंकि यदि यह हो गया तो भारतीय बुद्धिमान अपने देश से प्रेम करेगा और उनकी दुकान बंद हो जाएगी.

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