कानपुर – कॉटन, पटसन (जूट), रेशम, ऊन, चमड़ा और मशीनों के कल-पुरजों का उत्पादन करने वाला शहर जिसको कभी मैनचेस्टर ऑफ़ ईस्ट कहा जाता था. बड़े-बड़े उद्योग, देश-विदेश से कच्चा माल लाके उत्पादन करने वाली बड़ी बड़ी औद्योगिक इकाइयां.
IIT जैसे बड़े शैक्षणिक संस्थान से निकले इंजीनियर इन उद्योगों की शोभा बढ़ाते थे. यहाँ का बना माल विश्व विख्यात था, पूरे विश्व में भेजा जाता था. लाल इमली और NTC बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़े हुए थे.
लाखों की संख्या में दूर-दूर से रोजी-रोटी के लिए मज़दूर, कुशल और अकुशल कारीगर आते थे. मुंबई और मद्रास जैसे शहर भी इस कानपुर से रंज खाते थे. यहाँ सुदूर दक्षिण भारत से लोग काम करने आते थे.
80 के दशक की शुरुआत में कानपुर को नज़र लग गयी… कोई जादू, टोना-टोटके वाली नज़र नहीं, राजनीति की नज़र लग गयी.
वामपंथियों और कांग्रेसियों की राजनीति की भेंट चढ़ गया कानपुर… क्योंकि वहां पर मज़दूर ज़्यादा थे इसलिए मज़दूर एकता और मज़दूर की भलाई के नाम पर वामपंथियों की CITU और कांग्रेस की INTUC मज़दूरों को अपने साथ शामिल होने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाती रहती थी.
शुरू में वामपंथी मजबूत थे, कानपुर से हमेशा वामपंथी ही सांसद होता था लेकिन ये दूसरे पक्ष को मंजूर नहीं था, और वामपंथी ये कुर्सी छोड़े वो उनको मंजूर नहीं था.
इस तरह से मज़दूर एकता छिन्न-भिन्न होती गयी, दो धड़े बन चुके थे… जब एक काम करता तो दूसरा हड़ताल, बहुत कम ही दोनों धड़े एक साथ काम करते थे…
और फिर इनकी लड़ाइयाँ आम बात हो चुकी थी… राजनैतिक हत्याएं चरम पर थीं… पिसते थे मज़दूर, जिनके नाम पर ये सारी कवायद होती थी.
बात इतनी बढ़ चुकी थी कि महीने में बमुश्किल 15 दिन ही कोई भी फैक्ट्री चलती थी… अगर हड़ताल तो हड़ताल… कोई जाएगा काम करने तो उसकी पिटाई, चाहे बच्चे भूखे हों, चोरी करने या मर जाने की नौबत हो – बंदी तो बंदी…
और फिर अचानक 1981 में बंद हो गयी एक साथ 27 मिलें, धीरे-धीरे और भी इकाइयां अगले 2 माह में बंद हो गयी… बेरोजगार हो गए कुछ हज़ारों लोग नहीं बल्कि लाखों लोग.
सत्ता परिवर्तन हो गया. 1984 में सांसद जी दूसरे दल (कांग्रेस) के हो गए… कांग्रेस की कानपुर में कामयाबी… इस कामयाबी में छिपी थी लाखों की बेरोजगारी, लाखों बच्चों की भूख, मेहनतकश मज़दूर से चोर बनते दो हाथ, आत्महत्या करते मज़दूर…
1981 में इसी तरह मिल बंद होने पर हमारा परिवार भी चल पड़ा वापस गोरखपुर… पीछे-पीछे आये 63 परिवार जो किसी सूरत में कानपुर में नहीं रह सकते थे…
मुझे याद है कि गाँव पहुँच कर ये परिवार शायद 2 महीने रहे होंगे फिर जैसे-जैसे परिवारों के मुखिया की नौकरी कलकत्ता, मुंबई, कोटा, लुधियाना या सूरत में लगती गई तो ये परिवार भी धीरे-धीरे चले गए…
और इस तरह हो गयी एक शहर की हत्या, छीन लिया गया लाखों के मुंह से निवाला, बेघर कर दिए गए महिलाएं और बच्चे… और वो भी किसलिए… मात्र राजनैतिक कुर्सी की लड़ाई के लिए…
लाखों को बेरोज़गार बनाने वाली कांग्रेस और मज़दूरों का निवाला छीनने वाले वामपंथी नरेगा और फूड गारंटी योजना लाये…
तब कहाँ गए थे ये लोग… क्या हो गया था… गरीबों की आवाज़ उठाने वाले ये वामपंथी… सब के सब दलाली में मस्त थे, चन्दा चाहिये था मिल मालिकों से इस एवज में कि काम चलने देंगे… चंदा और दलाली इस एवज में भी, कि मिल बंद करवा देंगे…
ये है असली चेहरा इनका… असली चेहरा ढकोसलेबाज़ वामपंथियों का… ये है असली चेहरा इन कमबख्त कांग्रेसियों का…
लाखों की हत्या करने वाले, बेरोजगार करने वाले और गरीबी में अपने सब कुछ हारे हुए मज़दूरों से उनकी जिंदगी भी छीन लेने वाले ये राजनीति के ठेकेदार…
यही है इन गरीबों, मज़दूरों, शोषितों और वंचितों की राजनीति करने वाले वामपंथियों और कांग्रेसियों का असली चेहरा.