(लगभग साढ़े तीन साल पहले नवम्बर 2013 का लेख)
ख़ुर्शीद अनवर साहब जनसत्ता में लगातार योगदान करने वाले लेखक हैं और वहाबियत तथा इस्लाम के भिन्न फ़िरक़ों में अंतर को ले कर लिखते रहते हैं. उनका लेख ‘आतंकवादी कौन है’ बाध्य करता है कि इस पर गहन चर्चा की जाये.
इस्लाम के जन्म से ही वहाबी विचारधारा उसका प्रमुख अंग रही है. ये विचारधारा वहाब ने नहीं फैलायी थी बल्कि यही असली इस्लाम है. इस्लाम की अन्य विचारधारायें उस ओर बढ़ती हुई धारायें हैं.
कई बार ये बिदअत (इस्लाम के इतर जाना) कहलाती हैं. कई बार इन्हें इज्तिहाद (इस्लाम के आधार ग्रंथों में किसी बात पर स्पष्ट आदेश न होने पर मूल इस्लाम के सापेक्ष्य किन्तु स्वतंत्र चिंतन) कहा जाता है. इस सिलसिले में पूरे संस्थान रहे हैं. जैसे ख़ानदाने-इज्तिहाद, यानी उसी विषय पर काम करने वाले परिवार स्वयं में संस्था रही है.
इस्लाम कनवर्ज़न का धर्म है. कोई भी व्यक्ति पहले दिन पूर्णतया मुसलमान नहीं बनता. ये कई बार पीढ़ियों तक चलने वाला कार्य है. भारत के मुसलमान अब तक उन अर्थों में मुसलमान नहीं बने हैं और इसी काम को करने में दशकों से तब्लीग़ी जमातें लगी हुई हैं.
इक़बाल (फ़तवा और जवाबे-फ़तवा) और हाली (मुसद्दस) ने अपने काव्य में इसी का रोना रोया है. इन्हें सामान्य चीज़ मत मानिये. कश्मीर को इस स्थिति में तब्लीग़ी जमातों और मदरसों ने ही पहुँचाया है. ये इस तरह है कि पानी उबलने से पहले गुनगुना होता है, अधिक गर्म होता है फिर खौलता है फिर भाप बनता है.
आइये इस्लाम के बारे में जाँच-पड़ताल की जाये. इस्लाम के पांच अंगों में पहला तौहीद है और यही उसका आधार है. तौहीद यानी ख़ुदा एक है और उसी की इबादत होनी चाहिये. अल्लाह के सिवा कोई पूजनीय नहीं है. क़ुरआन उसकी वाणी है और मुहम्मद उसका आख़िरी पैग़म्बर है. शेष बातें इसे आधार मानने के बाद आती हैं.
ये दावे किसी भी सामान्य इस्लाम के जानकार से बात करके पुष्ट किये जा सकते हैं. किसी भी इस्लामी किताब से इसकी पुष्टि की जा सकती है. ये किसी भी सामान्य विचारधारा जैसा नहीं है चूँकि इसके बाद इसे लागू करने का चरण आता है. इसे लागू करने की विधि के बारे में क़ुरआन की कुछ आयतें और हदीस के दृष्टान्त प्रस्तुत हैं
मूर्ति पूजक लोग नापाक होते हैं (9-28)
जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिये जन्नत हराम कर दी है. उसका ठिकाना जहन्नुम है (5-72)
ओ मुसलमानों! तुम ग़ैर मुसलमानों से लड़ो. तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये (9-123)
और तुम उनको जहां पाओ क़त्ल करो (2-191)
काफ़िरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये (8-39)
ऐ नबी! काफ़िरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो. उनका ठिकाना जहन्नुम है (9-73 और 66-9)
अल्लाह ने काफ़िरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है (9-68)
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लेते हैं, न आख़िरत पर; जो उसे हराम नहीं जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे ज़लील हो कर जज़िया न देने लगें (9-29)
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और ग़लत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है (3-110)
मुझे लोगों के ख़िलाफ़ तब तक लड़ते रहने का आदेश मिला है, जब तक ये गवाही न दें कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा क़ाबिले-इबादत नहीं है और मुहम्मद अल्लाह का रसूल है और जब तक वे नमाज़ न अपनायें और ज़कात न अदा करें (सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या 33)
आप इन पंक्तियों की अवहेलना इस कारण नहीं कर सकते कि यही वास्तविक इस्लाम है. स्वयं मुहम्मद जी ने मक्का के मंदिर की 360 मूर्तियां तोड़ी थीं और उस मंदिर को मस्जिद में बदला था.
आप इस बात को सदियों पहले बीती बात कह कर नहीं टाल सकते कि मुहम्मद जी का स्तर सामान्य पैग़म्बरों जैसा नहीं है. उनका किया सुन्नत है यानी उनके किये को, (जो हदीसों में लिखा है) अपने जीवन में उतारना सबाब का काम है, फ़र्ज़ है.
इस रौशनी में कोई भी समझ सकता है कि ख़ुर्शीद अनवर साहब या तो बहुत भोले या बहुत चतुर हैं. सेम्युअल हटिंगटन की किताब ग़लत मानी जा सकती है मगर उसके कथन और तथ्यों की पुष्टि तो न केवल इस्लाम के मूल ग्रंथों से होती है बल्कि विभिन्न देशों के इस्लामी समाज के नेताओं के वक्तव्य, उन नेताओं का मुसलमानों द्वारा चयन ही बताता है कि वस्तुस्थिति क्या है.
9-11 में मारे गये हत्यारों की फ़ोटो की टीशर्ट सारी दुनिया में मिलती और बिकती हैं. तालिबान के पक्ष में सामान्य मुसलमान में सहानुभूति का भाव पाया जाता है. गुजरात-गुजरात जपने वाले उसका मूल कारण गोधरा सायास भूल जाते हैं.
विद्वानो! आतंकवाद मुख्य क्रिया नहीं है. इस्लाम को बढ़ाने के लिये उसके पक्ष में डर पैदा कर के उसकी आक्रामकता पर चुप रहने की योजना है. ये कार्य स्वयं मुहम्मद जी, उनके साथियों ने सफलतापूर्वक अरब इत्यादि देशों में किया था. यही अब सारी दुनिया में चल रहा है.
ये वैचारिक लडाई है और इसे विचार के आधार पर चुनौती दी ही जानी चाहिये. इस चुनौती के लिये सभ्य समाज की सारी व्यवस्थाएं; प्रत्येक मनुष्य के समान अधिकार, स्त्रियों के समान अधिकार, रजस्वला होने के बाद ही लड़की की शादी, प्रत्येक व्यक्ति के वोट की समानता और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था प्रजातंत्र की कसौटी ही पर्याप्त है. इस चुनौती के लिये बुद्धिजीवी वर्ग को लगातार सवाल करने चाहिये न कि इन विषयों पर मौन साधना चाहिये.
इसी आतंकवाद की नीति से अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश ही नहीं बल्कि अरब देश इसका शिकार हुए थे. ये सारे क्षेत्र इस्लाम की जकड़ में इसी तरह से आये हैं. अरब के लोगों ने भी इस्लाम सहज रूप से नहीं स्वीकारा था. वहाँ भी रक्तपात हुआ, नरसंहार हुए और परिणाम सामने है.
ख़ुर्शीद अनवर साहब के लेख एक चतुर वकील के केस की तरह होते हैं जो अपना केस जीतने के लिये तथ्यों का चयन करता है. शुद्ध इस्लाम वही है जो वहाबी, तालिबानी चाहते और कहते हैं. इस्लाम के शेष सभी फ़िरक़े बिदअत हैं और जहाँ-जहाँ इस्लाम का शासन आता है वहाँ इनकी कोई सम्भावना नहीं रह जाती. उन्हें बलपूर्वक नष्ट कर दिया जाता. कवाल से कीनिया तक यही योजना काम कर रही है.