अभी कुछ दिनों पहले पड़ोस में रेल्वे के एक सिविल इंजीनियर की एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई.
कारण था, कहीं जंगल में पुल का काम हो रहा था, रात तीन बजे काम खत्म करके सारा स्टाफ, अधिकारी, ठेकेदार रोड पर भूखे-प्यासे खड़े थे अंधेरे में, कि कोई वाहन मिले और जल्द से जल्द सब घर पहुंचें.
एक ट्रक मिला जिसमें सब सवार हुए और चल दिए घरों की ओर. सबके घर भी अलग-अलग शहरों में थे.
इंजीनियर साहब ड्राइवर के पास बैठे थे. कुछ देर बाद सामने जा रहे सरियों से भरे ट्रक से टक्कर हो गई.
सरिये इंजीनियर के सीने के पार हो गए थे, गर्दन धड़ पर झूल रही थी. सब खतम हो गया.
घर में मातम था. दो जवान बेटियाँ, पथराई आंखों वाली पत्नी और एक बूढ़ी माँ, हंसता-खेलता परिवार तबाह हो गया….
ऐसी मृत्यु के क्या कारण होते हैं. कैसी तख्ती थामनी चाहिए उनकी बेटियों को?
सिस्टम को कोसें, नौकरी को कोसें, ड्राइवर को कोसें तो माना भी जा सकता है लेकिन कोई एक्सीडेंट के लिए प्रगति को कोसें तो हंसी का पात्र बनेगा.
प्रत्यक्ष समाधानों को छोड़कर अप्रत्यक्ष चीजों में अपनी फिलोस्फी दिखाना मंदबुद्धि जैसा लगता है.
खैर सबमें ये कूवत भी होना चाहिए कि पिता की मृत्यु पर तख्तियां बदल-बदल कर वीडियो बनाए और एक सोची-समझी रणनीति के तहत एक नई आइड्योलॉजी को रख दे.
आम लोगों के लिए तो नया ही है. बवाल ऐसा है कि बड़े-बड़े रेशनल थिंकर्स अपनी बुद्धि, अपने तर्क देने में लगे हैं. गृहमंत्री को ट्वीट करना पड़ता है.
जबकि हिंसा तो सदैव थी और रहेगी ही हर गली में, हर कोने में, हर व्यक्ति के अंदर, हर कोई युद्ध लड़ रहा है.
अब ये युद्ध सही या वो युद्ध सही… इतने सलेक्टिव हम नहीं. कारणों पर गौर करना ज्यादा ज़रूरी है जो हम कभी नहीं करते और अनर्गल बातों में उलझे रहते हैं.
आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर शांति की वार्ता… वो भी एक तरफा, कब तक करना है? पहले ये तो पता चले कि आतंकवादियों को ये हिंसक मानती हैं या नहीं?
दोनों तरफ शांति सभी चाहते हैं, वाकई चाहते हैं और इसी चाहत और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण के बाद कारगिल हो जाता है. इस सोच के पीछे आखिर कौन है….?
आतंकवादी हिंसक नहीं
माओवादी हिंसक नहीं
पत्थरबाज हिंसक नहीं
दंगे करने वाले हिंसक नहीं
हिंसक सोच रखने वाले हिंसक नहीं
हिंसा सिखाने वाले शिक्षक हिंसक नहीं
तो क्या केवल फौजी हिंसक हैं?
शानदार।