न ये उदार, न ये सेक्युलर… बस बचपन से पिया है वामपंथी ज़हर

यह अक्सर ही देखता रहता हूँ कि जब भी कोई ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ को ले कर बवंडर उठता है तो उसके समर्थन में, मीडिया के सहयोग से जहाँ राष्ट्रवादी विचारधारा के विरोधी वामपंथी और सेक्युलर राजनैतिक दल खड़े हो जाते हैं, वही अभिजात्य व प्रगतिशील वर्ग के सेलेब्रिटी भी सामने आ जाते हैं, जो अपने को उदारवादी और सेक्युलर कहते है.

यह सब न उदारवादी हैं और न ही सेक्युलर होते हैं बल्कि यह सब शैशव काल से ही वामपंथी ज़हर पीकर बड़े हुए होते हैं. इनमें वह सब होते हैं, जिन्हें हिन्दू से घृणा होती है व हिंदुत्व उनको हीनता का बोध कराती है.

इसमें वह भी शामिल होते हैं जो अपनी इस्लामिक व ईसाइयत की कट्टरता को छुपाने के लिए वामपंथ द्वारा सिंचित उदारवादिता और सेक्युलरता का नकाब पहन लेते है.

कहने का मतलब यह है कि राष्ट्रवाद और भारत की परिकल्पना से विमुख इन लोगों के मूल में वामपंथ ही होता है और इन सबको भारत की जनता के सामने सजाने और बेचने का काम, इसी वामपंथी विचारधारा से पोषित मीडिया और पत्रकार करते हैं.

यह सब एकाएक नहीं हुआ है. जो हमें आज दिख रहे हैं वह वामपंथ द्वारा कई पीढ़ियों पहले कढ़े और गढ़े गए थे. आज इस वर्ग ने भारत में हायड्रा का रूप ले लिया है और पूरे भारत में, विभिन्न तन्त्रो में अपनी पैठ बना चुके है.

16 मई 2014 से पहले तो इनकी तादाद का किसी को ज्ञान ही नहीं था क्योंकि जो सामने दिख रहे थे, उनसे कहीं ज्यादा वह भेड़िये थे जो भेड़ की खाल ओढ़े, जनमानस में छिपे हुए थे.

यदि भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा का शासन नहीं आया होता तो यह लोग अभी भी भेड़ की खाल ही ओढ़े हुए होते लेकिन इनके सूखते हुए आर्थिक आलंबन के स्रोतों ने, इन्हें नकारात्मक और असहज कर दिया है. अब तो इन भेड़ियों से, ओढ़ी हुयी भेड़ की खाल भी सहेजते नहीं बन पड़ रही है.

भारत एक राष्ट्र की परिकल्पना पर कुठाराघात करते हुए इनके संलापों, लोकतंत्र की संवैधानिक शक्ति को क्षीण करने के कुत्सित इरादों, रक्षा तन्त्रों के मनोबल को तोड़ने वाले षडयंत्रों और दुर्जनात्मक चरित्र ने, एक-एक करके इन भेड़ियों पर से भेड़ की खाल उतारनी शुरू दी है.

हम जो आज भारत की राष्ट्रवाद से वंचित, खोखली हुयी पीढ़ी और उनके आदर्श बने अग्रजो को देख रहे है, वह उस पीढ़ी की देन है जिसने 1950 के दशक से भारत में वामपंथी विचारों की सम्पूर्ण विजय की परिणति में, भारत के टूटने का सपना देखा था.

इस वामपंथी पीढ़ी को असली परवान 70 के दशक में चढा था जब सोवियत रूस से वामपंथी वामपंथी नेतृत्व को भारत में सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र पर अधिपत्य के लिए धन मिला था.

इसी के साथ, सोवियत रूस के निर्देशानुसार वामपंथियों ने इंदिरा गाँधी की कांग्रेस को राजनैतिक समर्थन दिया था जिसके एवज में इंदिरा गाँधी ने इन वामपंथियों को केंद्रीय शिक्षा व सांस्कृतिक संगठनों को चलाने का पूरा एकाधिकार दे दिया था.

आज उसी का यह परिणाम है कि इन संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, कला क्षेत्रों इत्यादि से वह अग्रज, जिन्होंने आज की खोखली पीढ़ी को बनाया है, अपनी बनाई गयी कठपुतलियों के साथ टीवी स्टूडियों, अखबारों, ट्विटर, फेसबुक और सड़क पर चीखते, बड़बड़ाते और हड़बड़ाते दिखते जा रहे हैं.

अब जिस विषबेल की जड़ें इतनी गहरी हैं, उसको यदि आप शासन से सिर्फ एक ही प्रहार में काट डालने की उम्मीद रखते है तो यह आपकी अपरिपक्वता होगी और अयथार्थवादी सोच को दर्शायेगी.

यह काम सिर्फ और सिर्फ शासन में निहित शक्तियों से नहीं होगा, इसमें आपकी भागीदारी की परम आवश्यकता है.

यह वामपंथी विषबेल कैसे और किन के सहयोग से भारत की आने वाली पीढ़ियों में जहर बो गयी है, इस पर आगे लिखूंगा.

जारी…

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