दुनिया भर की महिला कैदियों के लिए कि उन का जीवन सुंदर हो.
भूमिका
एक अनाम और निरपराध औरत की जेल डायरी
करे कोई, भरे कोई. एक पुरानी कहावत है. एक बात यह भी है कि कई बार आंखों देखा और कानों सुना सच भी, सच नहीं होता. होता तो यह जेल डायरी लिखने की नौबत नहीं आती. लेकिन हमारे जीवन में भी कई बार यह बात और वह कहावत लौट-लौट आती है.
एक वाकया याद आता है.
एक गांव में एक पंडित जी थे. पूरी तरह विपन्न और दरिद्र. लेकिन नियम क़ानून और शुचिता से कभी डिगते नहीं थे. किसी भी सूरत. लोग बाग़ जब गन्ने के खेत में आग लगा कर कचरा, पत्ता आदि जला देते थे, पंडित जी अपने खेत में ऐसा नहीं करते थे. यह कह कर कि अगर आग लगाएंगे तो जीव हत्या हो जाएगी. पत्तों के साथ बहुत से कीड़े-मकोड़े भी मर जाएंगे. पर्यावरण नष्ट हो जाएगा. लेकिन पंडित जी के इस सत्य और संवेदना से उन के कुछ पट्टीदार जलते थे. एक बार गांव में एक हत्या हो गई. उस हत्या में पंडित जी को भी साजिशन नामजद कर दिया उन के पट्टीदारों ने.
पुलिस आई तफतीश में तो पंडित जी बुरी तरह भड़क गए पुलिस वालों पर. जो जो नहीं कहना था, नाराजगी में फुल वॉल्यूम में कहा. पुलिस भी खफा हो गई. उन्हें दबोच ले गई और मुख्य मुल्जिम बना कर जेल भेज दिया. सब जानते थे कि इस हत्या में पंडित जी का एक पैसे का हाथ नहीं. पर उन्हें सज़ा हो गई. जो व्यक्ति गन्ने के खेत में पत्ते भी इस लिए नहीं जलाता था कि जीव हत्या हो जाएगी, कीड़े-मकोड़े जल कर साथ मर जाएंगे. उसी व्यक्ति को हत्या में सज़ा काटनी पड़ी. ऐसा होता है बहुतों के जीवन में. सब जानते हैं कि फला निर्दोष है लेकिन क़ानून तो क़ानून, अंधा सो अंधा. यही उस का धंधा.
तो यहां इस डायरी की नायिका भी निरपराध होते हुए भी एक दुष्चक्र में फंसा दी गई. न सिर्फ़ फंसा दी गई, फंसती ही गई. कोई अपना भरोसे में ले कर जब पीठ में छुरा घोंपता है तो ऐसे ही होता है. इस कदर छुरा घोंपा कि एक निरपराध औरत सी बी आई के फंदे में आ गई. फ्राड किसी और ने किया, घोटाला किसी और ने किया और मत्थे डाल दिया इस औरत के. इस औरत के पति को भी इस घेरे में ले लिया. शुभ चिंतक बन कर डस लिया.
विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता का शीर्षक है लिफ़ाफ़ा :
पैग़ाम तुम्हारा
और पता उन का
दोनों के बीच
फाड़ा मैं ही जाऊंगा.
तो इस डायरी की नायिका लिफ़ाफ़ा बनने को अभिशप्त हो गई. एक निरपराध औरत की जेल डायरी की नायिका का सब से त्रासद पक्ष यही है. मेरी त्रासदी यह है कि इस लिफ़ाफ़ा का डाकिया हूं. डायरी मेरी नहीं है. बस मैं परोस रहा हूं. जैसे कोई डाकिया चिट्ठी बांटता है, ठीक वैसे ही मैं यह डायरी बांट रहा हूं.
एक अनाम और निरपराध औरत की जेल डायरी परोसते हुए उस औरत की यातना, दुःख और संत्रास से गुज़र रहा हूं. उस के छोटे-छोटे सुख भी हैं इस डायरी की सांस में. सांस-सांस में. पति और दो बच्चों की याद में डूबी इस औरत और इस औरत के साथ जेल में सहयात्री स्त्रियों की गाथा को बांचना सिर्फ़ उन के बड़े-बड़े दुःख और छोटे-छोटे सुख को ही बांचना ही नहीं है. एक निर्मम समय को भी बांचना है. सिस्टम की सनक और उस की सांकल को खटखटाते हुए प्रारब्ध को भी बांचना है.
यह दुनिया भी एक जेल है. लेकिन सचमुच की जेल ? और वह भी निरपराध. एक यातना है. यातना शिविर है. मैं ने सब से पहले जेल जीवन से जुड़ी एक किताब पढ़ी थी भारतीय जेलों में पांच साल. जो मेरी टाइलर ने लिखी थी. फाइव इयर्स इन इंडियन जेल. इस का हिंदी अनुवाद आनंद स्वरूप वर्मा ने किया था. मेरी टाइलर अमरीका से भारत घूमने आई थीं. पेशे से पत्रकार थीं. लेकिन अचानक इमरजेंसी लग गई और वह सी आई ए एजेंट होने की शक में गिरफ़्तार कर ली गईं. कई सारी जेलों में उन्हें रखा गया. यातना दी गई. इस सब का रोंगटे खड़े कर देने वाला विवरण दर्ज किया है मेरी टाइलर ने. दूसरी किताब पढ़ी मैं ने जो मोहन लाल भास्कर ने लिखी थी, मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था. पाकिस्तानी जेलों में दी गई यातनाओं को इस निर्ममता से दर्ज किया है मोहनलाल भास्कर ने कि आंखें भर-भर आती हैं.
पॉलिन कोलर की ‘आई वाज़ हिटलर्स मेड’ तीसरी किताब है जो मैं ने जेल जीवन पर पढ़ी है. मूल जर्मन में लिखी इस किताब के हिंदी अनुवाद का संपादन भी मैं ने किया है. मैं हिटलर की दासी थी नाम से हिंदी में यह प्रकाशित है. हिटलर के समय में जर्मन की जेलों में तरह तरह की यातनाएं और नरक भुगतते हुए पॉलिन कोलर ने ‘आई वाज़ हिटलर्स मेड’ में ऐसे-ऐसे वर्णन दर्ज किए हैं कि कलेजा मुंह को आता है. कई सारे रोमांचक और हैरतंगेज विवरण पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. पॉलिन कोलर का पति भी जाने किस जेल में है. जाने कितने पुरुषों की बाहों और उन की सेक्स की ज़रूरत पूरी करती, अत्याचार सहती पॉलिन कोलर का जीवन नरक बन जाता है. फिर भी वह हिम्मत नहीं हारती. संघर्ष करते-करते हिटलर की सेवा में रहते हुए भी जेल जीवन से वह न सिर्फ़ भाग लेती है बल्कि अपने पति को भी खोज कर छुड़ा लेती है और देश छोड़ कर भाग लेती है.
कई सारे उपन्यासों में भी मैं ने जेल जीवन पढ़ा है. हार्वर्ड फास्ट की आदि विद्रोही जिस का हिंदी अनुवाद अमृत राय ने किया है उस के विवरण भी पढ़ कर मन हिल जाता है. एलेक्स हेली की द रूट्स का हिंदी अनुवाद ग़ुलाम नाम से छपा है. इस के भी हिंदी अनुवाद का संपादन एक समय मैं ने किया था. इसे पढ़ कर यहूदियों की गुलामी और उन की कैद के विवरण जहन्नुम के जीवन से लथपथ हैं. जानवरों की तरह खरीदे और बेचे जाने वाले यहूदी जानवरों की ही तरह गले में पट्टा बांध कर रखे भी जाते हैं. अनगिन अत्याचार जैसे नियमित हैं. लेकिन यह ग़ुलाम अपनी लड़ाई नहीं छोड़ते. निरंतर जारी रखते हैं. मुझे इस उपन्यास का वह एक दृश्य कभी नहीं भूलता. कि नायक जेल में है. उस की गर्भवती पत्नी उसे जेल में मिलती है और पूछती है कि तुम्हारे होने वाले बच्चे से तुम्हारी ओर से मैं क्या कहूंगी ?
वह ख़ुश हो कर कहता है, सुनो, मैं ने अपनी मातृभाषा के बारे में पता किया है. मुझे पता चल गया है कि मेरी मातृभाषा क्या है ? लो यह सुनो और पैदा होते ही मेरे बेटे के कान में मेरी ओर से मेरी मातृभाषा के यह शब्द कहना. मोहनलाल भास्कर भी विवाह के कुछ महीने बाद ही अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़ कर पाकिस्तान गए हुए हैं. जासूसी के लिए. एक गद्दार की गद्दारी से वह गिरफ़्तार हो जाते हैं. पर पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में रहते हुए उन की चिंता में भी पत्नी और पैदा हो गया बेटा ही समाया रहता है. ‘आई वाज़ हिटलर्स मेड’ की पॉलिन कोलर का भी जेल में रहते हुए पहला और आखि़री सपना पति और परिवार ही है.
इस डायरी की हमारी नायिका भी जेल में रहते हुए पति और बच्चों की फ़िक्र में ही हैरान और परेशान मिलती है. अपने दुःख और अपनी मुश्किलें भी वह बच्चों और पति की याद में ही जैसे विगलित करती रहती है. सोचिए कि वह जिस डासना जेल में है, उस जेल के पास से ही लखनऊ जाने वाली ट्रेन गुज़रती रहती है. जिस ट्रेन से उस का बेटा गुज़रता है, उस ट्रेन के गुज़रने के शोर में वह अपने बेटे की धड़कन को सहेजती मिलती है. कि बेटा लखनऊ जा रहा है. मेरे बगल से गुज़र रहा है. मां की संवेदना में भीग कर, उस के कलपने में डूब कर उस के मन का यह शोर ट्रेन के शोर से उस की गड़गड़ाहट से अचानक बड़ा हो जाता है, बहुत तेज़ हो जाता है. खो जाती है ट्रेन, उस का शोर, उस की गड़गड़ाहट. एक मां की इस आकुलता में डूब जाती हैं डासना जेल की दीवारें. मां-बेटे के इस मिलन को कोई भला किन शब्दों में बांच पाएगा?
बच्चों का कैरियर पति की मुश्किलें उसे मथती रहती हैं. बेटी के कॅरियर और विवाह को ले कर डायरी की इस नायिका की चिंताएं अथाह हैं. वह अपनी चिंताओं को विगलित करने के लिए अपने बच्चों को चिट्ठी लिखती है. चिट्ठी लिखते-लिखते वह जैसे डायरी लिखने लगती है. रोजनामचा लिखने लगती है. अपने आस-पास की दुनिया लिखने लगती है. लिखी थीं कभी पंडित नेहरु ने अपनी बेटी इंदु को जेल से चिट्ठियां. बहुत भावुक चिट्ठियां. महात्मा गांधी भी विभिन्न लोगों को जेल से चिट्ठियां लिखते थे.
कमलापति त्रिपाठी की भी जेल से लिखी चिट्ठियां भी मन को बांध-बांध लेती हैं. लेकिन वह बड़े लोग थे. महापुरुष लोग थे. उन की चिंताओं का फलक बड़ा था, उन की लड़ाई बड़ी और व्यापक थी. लेकिन इस डायरी की नायिका एक जन सामान्य स्त्री है. निरपराध है. साजिशन फंसा दी गई है. उस की चिंता में सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने रोजमर्रा के छोटे-छोटे दुःख हैं. पति और बच्चे हैं. उन की चिंता है. दिखने में यह सब बातें बहुत छोटी और सामान्य दिखती हैं, लेकिन जिस पर गुज़रती है, उस के दिल से पूछिए. उस का यह दुःख उसे हिमालय लगता है. हिमालय से भी बड़ा.
और जेल की सहयात्री स्त्रियां ?
जेल बदल गई है, समय और यातनाएं बदल गई हैं लेकिन स्त्रियों का जीवन नहीं बदला है. जेल से बाहर भी वह कैद ही रहती हैं. कैदी जीवन उन का बाहर भी होता है. पर वह घर परिवार के बीच रह कर इस सच को भूल जाती हैं. तो महिला बैरक की स्त्रियों की कथा, उन की मनोदशा और दुर्दशा भी साझा करती रहती है हमारी डायरी की यह नायिका. जितनी सारी स्त्रियां, उतने सारे दुःख. जैसे दुःख न हो साझा चूल्हा हो. तमाम सारी स्त्रियों का टुकड़ा-टुकड़ा, भारी-भारी दुःख और ज़रा-ज़रा सा सुख, उस का कंट्रास्ट और कोलाज एक डाकिया बन कर, पोस्टमैन बन कर बांट रहा हूं मैं. स्नेहलता स्नेह का एक गीत याद आ रहा है, थोड़ी धूप, तनिक सी छाया, जीवन सारा का सारा. माया गोविंद ने लिखा है, जीना आया जब तलक तो ज़िंदगी फिसल गई. नीरज ने लिखा है, कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे. हमारी डायरी की यह नायिका भी जेल जीवन में गाती रहती थी और अब बताती रहती है कि यह डायरी लिख कर ही मैं ज़िंदा रह पाई थी जेल में. नहीं ज़िंदा कहां थी, मैं तो मर-मर गई थी. विश्वनाथ प्रताप सिंह की ही एक कविता है झाड़न :
पड़ा रहने दो मुझे
झटको मत
धूल बटोर रखी है
वह भी उड़ जाएगी.
लेकिन इस डायरी ने झाड़न चला दी है. जेल जीवन जी रही औरतों पर पड़ी धूल की मोटी परत उड़ गई है. इस धूल से हो सके तो बचिए. क्यों कि औरतों की दुनिया तो बदल रही है. यह डायरी उसे और बदलेगी. सरला माहेश्वरी की यह कविता ऐसे ही पढ़ी और लिखी जाती रहेंगी :
8150 दिन !
– सरला माहेश्वरी
जेल में
8150 दिन !
23 वर्ष !
प्रतीक्षा के तेइस वर्ष !
बेगुनाह साबित होने की प्रतीक्षा के तेइस वर्ष !
जेल के अंदर
एक बीस वर्ष के छात्रा के तैंतालीस वर्ष में बदलने के तेइस वर्ष…!!
एक ज़िंदगी के ज़िंदा लाश में बदलने के तेइस वर्ष….!!!
दो बेगुनाह बेटों की
प्रतीक्षा में रोज़ मरते परिवार के तेइस वर्ष !!!
भाषा, शक्ति, बल, छल के तेइस वर्ष !
बोलने के नहीं
बोलने को थोपने के तेइस वर्ष !
बोलने की ग़ुलामी के तेइस वर्ष !
आज़ादी के पाखंड के तेइस वर्ष !
निर्बल और निर्दोष को
बलि का बकरा बनाये जाने के
सत्ता के सनातन समय के
सनातन सत्य के सनातन तेइस वर्ष !
ओह निसार ! ओह ज़हीर ! ओह सरबजीत !
प्रतीक्षा और प्रतीक्षा !
नहीं छूटती….
ज़िंदगी की प्रतीक्षा !
प्रेम की प्रतीक्षा !!
मुक्ति की प्रतीक्षा !!!
नई सुबह की प्रतीक्षा !!!!
प्रतीक्षा को चाहिए कई ज़िंदगियां ….!!!!!
एक औरत की जेल डायरी
पृष्ठ सं. 151
मूल्य-400रुपए
आवरण : अरुण सिंह
प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2017
पुस्तक के बारे में और अधिक पढ़ने के लिए कृपया लेखक दयानंद पाण्डेय जी के ब्लॉग सरोकारनामा पर जाएं.