मणि कौल की फ़िल्म “उसकी रोटी” देखने के बाद किसी “संत्रस्त” समालोचक ने यह तल्ख़ टिप्पणी की थी कि इस फ़िल्म के निर्देशक को “पोर्नोग्राफ़ी” बनानी चाहिए. “उसकी रोटी” अपनी धीमी गति के कारण तब बहुत कुख्यात हो गई थी और अपनी इस पहली ही फ़ीचर फ़िल्म के बाद मणि ने आगे चलकर सिनेमा में “विलंबित लय” के और विकट प्रतिमान स्थापित करना थे, किंतु उस तल्ख़ टिप्पणी का आशय मैं कभी समझ नहीं पाया. बहरहाल, पोर्नोग्राफ़ी तो नहीं, बाद में मणि कौल ने एक “इरोटिक” फ़िल्म ज़रूर बनाई. “द क्लाउड डोर”. “बादल द्वार”. अपने तरह की अनूठी फ़िल्म. मणि की अदम्य प्रतिभा का जयघोष.
हुआ ये था कि 1994 के साल में जर्मन निर्मात्री रेगिना त्सीग्लर ने “इरोटिक टेल्स” शीर्षक से कुछ शॉर्ट फ़िल्मों का एक संकलन बनाना तय किया. विभिन्न देशों के फ़िल्मकारों ने इसमें सहभागिता की. भारत से मणि कौल थे. और जब रिव्यूज़ सामने आए तो सभी ने एक स्वर से कहा कि “इरोटिक टेल्स” नामक इस प्रयोग को बहुत सफल तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन सबसे विलक्षण फ़िल्म मणि कौल की थी. हमने ऐसी पर्सेप्टिव मेधा पहले नहीं देखी. निर्देशक का नाम तक नहीं सुना था. कौन है यह मणि कौल?
विश्व सिनेमा के फलक पर भारत को सत्यजित राय के देश के रूप में जाना जाता है, लेकिन “कौन है यह मणि कौल” पूछने वालों ने अगर बाद में इस अल्पज्ञात फ़िल्मकार की फ़िल्में देखने का निश्चय किया होगा तो वे कृतकृत्य ही हुए होंगे. वैसी विशुद्ध विलक्षण फ़िल्मचर्या और वैसा समृद्ध “बॉडी ऑफ़ वर्क” भारत में किसी और का नहीं है, जैसा कि मणि का है.
“बादल द्वार” पर संस्कृत कथा-साहित्य की चिंतामणि भट्टकृत “शुकसप्तति” परंपरा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है. जायसी की “पद्मावत” और भास के “अविमारक” के अंशों पर यह फ़िल्म आधारित है, यह तो फ़िल्म के “क्रेडिट्स” में स्वयं मणि ने स्वीकारा है. भास के “अविमारक” में जादुई मुद्रिका पहनकर नायक अदृश्य हो जाता है, ताकि अपनी प्रिया कुरंगी के साथ अभिसार का समय अधिक से अधिक और निर्बाध बिता सके. ज्ञात रहे, “सदेह” होकर भी अदृश्य हो जाने में “अनंग” यानी कामदेव के रूपक का जो निर्वाह है, उसे भारतीय समालोचक ही बूझ सकते हैं. यहां यह भी ग़ौर किया जाए कि वात्स्यायन ने अपने “कामसूत्र” में नायिका को रतिक्रिया के लिए तत्पर करने के लिए जिन उपायों का उल्लेख किया है, उनमें यह भी है कि नायक उसे “अविमारक” की कथा विस्तार से सुनाए. कालिदास भी “मालविकाग्निमित्रम्” में भास को अत्यंत आदर के साथ प्रणाम करते हैं. “स्वप्नवासवदत्ता”, “उरुभंग” और “प्रतिज्ञायौगन्धरायण” के इस यशस्वी कृतिकार का संस्कृत साहित्य में बहुत मान है.
और फिर मणि हैं, अवबोध के स्तर पर भास की भावभूमि के समकक्ष और सिनेमा जैसे आधुनिक माध्यम में क्लासिकी अनुगूंजों को विन्यस्त कर देने के लिए कटिबद्ध. इससे पहले “आषाढ़ का एक दिन” में वे कालिदास को चित्रित कर चुके थे. “ध्रुपद” का उनका प्रस्तुतीकरण भी संस्कृत साहित्य की “सूत्रधार” परंपरा से अनुप्राणित था. “बादल द्वार” में वे भास और जयदेव की भावभूमि पर अवतरित होते हैं. पृष्ठभूमि में ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर की रुद्रवीणा का अहर्निश नाद है. राजपूताना शैली के शिल्प और स्थापत्य हैं. मणि इकलौते ऐसे फ़िल्मकार हैं, जिनके यहां नाद-स्वर का इतना शुद्ध निरूपण होता है कि उनका लैंडस्केप भी जैसे उस नाद की लयगति के साथ एकमेक हो जाता है.
संस्कृत काव्य की परंपरा के अनुकूल यहां दूत, विदूषक, गणिका, नायिका भेद, परकीया, स्नान-पर्व, अभिसार, चुंबन, आलिंगन, रतिचेष्टा, संसर्ग आदि इत्यादि का शास्त्रोक्त निरूपण है, लेकिन मणि की अपनी छाप अंत के उस दृश्य में दिखाई दे जाती है, जिसमें भोजन के दौरान नर मछली को स्पर्श करने से नायिका इनकार कर देती है और तब वह “मत्स्यावतार” ऊंचे स्वर में अट्टाहास करता है. यह फ़िल्म अमरीका और यूरोप में कइयों के सिर के ऊपर से निकल गई थी,
“न्यूयॉर्क टाइम्स” ने लिखा था कि “Here is a succession of brightly colored images that “almost” tell a story” यानी फ़िल्म अपने चमत्कृत कर देने वाले दृश्य-विधान से लगभग एक कहानी सुना डालती है, लेकिन वो कहानी क्या है, यह हमको नहीं मालूम. अलबत्ता फ़िल्म में निहित “ओरियंटल एस्थेटिक्स” की झांकी ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया था. रतन थियम के “मेघदूतम्” का प्रस्तुतीकरण देखकर वे जाने क्या करते, अनुमान ही लगाया जा सकता है.
“बादल द्वार” : यह मणि के कृतित्व का अनूठा रत्नमणि है. एक फ़िल्मकार के रूप में मणि की संपूर्णता का साक्ष्य भी.