“पहला नियम …. कोई नियम नहीं ………..”
कहीं सुना, पढ़ा, फिर अनुभव किया… लेकिन ये अनुभव कोई मुट्ठी में बंद मिट्टी नहीं कि आकाश की ओर उछाली और उस पर बादल मंडराने लगे… कुछ बादल से बरसे और कुछ आँखों से … आह! ये पानी तुमने अनुभव किया कभी मेरी तरह… जैसे मुझे भिगोता है कभी तुम्हें भिगोया है इसने???
नहीं, ये अनुभव नहीं ये घटनाएं है, जो उन्नीस-बीस के फर्क के साथ सबके जीवन में एक सी होती है…. अनुभव कुत्ते की तरह छलांग मारकर एकदम से आपकी गोद में नहीं आ बैठता, वो तो केंचुएँ की तरह धीरे-धीरे सरकता हुआ आता है, और धीरे-धीरे ज़मीन से ऊपर की यात्रा शुरू करता है… कभी-कभी ये दीमक की तरह भी हो जाता है जो आपको अन्दर तक खोखला कर जाता है…
कभी अपनी ही आँखों की कटोरियों से झांकर देखना….. खाली आँखें खाली आकाश की तरह हो जाएगी…. जिसे खिड़कियाँ बनाकर तुम झाँक सकोगे उस असीमित आकाश की ओर जहां बहुत सारी आकाश गंगाएं विचरती रहती है बिना किसी नियम के… कुछ उल्काएं भी नज़र आएंगी इधर-उधर बिखरी हुई गिरती पड़ती सी, तो कोई तारा अपनी लम्बी सी पूँछ को लहराता हुआ निकलेगा, जिसे जब तुम हुश्श!! कहते हुए भगाओगे तो छिपकली की पूंछ की तरह तुम पर ही आ गिरेगा…
उसका क्या गया वो तो दोबारा उगा लेगा अपनी पूँछ लेकिन तुम उस पूंछ को थामे पूरी ज़िंदगी मत निकाल देना… ये अनुभव नहीं… अनुभव स्थूल नहीं होता ..बहुत सूक्ष्म होता है…. वो तो उस पुच्छल तारे की गति के साथ बढ़ गया आगे, या उस उल्कापिंड को गिरते हुए देखने में गिर गया… वो हाथ नहीं आता, यूं ही बिखरा रहता है तुम्हारे मस्तिष्क के आकाश में अवकाश लेकर…
इस बार मुट्ठी में बंद मिट्टी नहीं, अपने हौसले को उछालना मस्तिष्क के आकाश में पूरी ताकत से ऐसे कि कोई बादल बीच में आए तो वो भी फट जाए लेकिन हौसले को रोक न पाए… और हाँ जैसे बादल के बरसने का कोई नियम न होते हुए भी सम्पूर्ण प्रकृति एक ही नियम में प्रतिबद्ध हो चलती है, वैसे ही गति के उस नियम को तुम स्वीकार लो… कि चाहे सामाजिक भय के नियम टूट भी जाए गति का ये सार्वभौमिक नियम टूटने न पाए…
धरा की धुरी पर तुम भी चॉक से एक लकीर खींच लो बस याद रखना तुम्हारी लकीर बाकी लोगों की खींची लकीर से सदैव बड़ी रहे….