शायद मानवीय इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि, तथाकथित बुद्धिजीवी और आम जनता आमने सामने है.
फिर चाहे बुद्धिजीवी मीडिया से हो या सिनेमा-साहित्य से, और जनता चाहे हिंदुस्तान की हो या अमेरिका की.
क्यों?
क्योंकि इस पर वामपंथी विचारधारा का कब्जा है, जो पूरी तरह जन विरोधी है.
अरे भाई आप मोदी के जीतने पर हिंदुस्तान छोड़ रहे थे, अब तो ट्रम्प भी तुमको व्हाइट हाउस में नहीं घुसने दे रहा.
ये दिमाग से पैदल इतना भी नही समझ पा रहे कि मोदी और ट्रम्प को जनता ने चुना है, इसलिए इनका इस हद तक विरोध मतलब जनता का विरोध.
इनसे यह पूछा जाना चाहिए कि कहां-कहां से भागोगे, देखते जाओ, अभी तो यूरोप में भी यही होना है. और बाकी बचा अरब देश… तो वहां तुम घुस ही नहीं सकते.
असल में जनता इनके दोगले पन से नाराज है.
अब ये छोटा सा उदाहरण ही देख लो –
कोई अगर जेएनयू में कुछ बोलना चाहे तो उसे आजादी नहीं है, मगर यही जेएनयू गिरोह रामजस कॉलेज में जबरन घुस कर बोलने की आजादी चाहता है!
कमाल ही है, ये आज़ादी मांगने वाली स्टालिन-लेनिन की सेना!!
देशद्रोहियों और देश के टुकड़े-टुकड़े बोलने वालों से लड़ाई तो खुल कर लड़ी जानी चाहिए… क्योंकि आत्मरक्षा का अधिकार तो संविधान भी देता है, यहां तो राष्ट्र की सुरक्षा और एकता का मामला है.
जेएनयू में ना जाने कितनो को इस ‘आज़ादी’ ब्रिगेड ने बोलने नहीं दिया, कोई प्राइम टाइम हुआ?
नहीं!
ना जाने कितने प्रतिभावान छात्रों ने देश और समाज के लिए श्रेष्ठ प्रदर्शन किया, क्या कभी कन्हैया, खलिद और अब इस कन्या की तरह मीडिया ने प्लेटफार्म दिया?
नही!
ना जाने कितनी बार तस्लीमा को, सलमान रश्दी को और अब तारिक फ़तेह को बोलने नहीं दिया गया, कभी बोलने की आज़ादी पर प्रश्न चिह्न लगा?
नही!
ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां ये मीडिया एक तरफ़ा षड्यंत्र करता पाया जा रहा है मगर हर बार हम उस पर प्रतिक्रिया दे कर उसके ही मकड़जाल में फंस जाते हैं.
कोई तो इलाज होगा इसका?
कम से कम, जो भी देश भक्त इनकी बहस में जाता है वो सिर्फ इन प्रश्नों के जवाब क्यों नही मांगता?
और जब तक वो इन सवालों का सीधे-सीधे जवाब नहीं देते तब तक हमें अपने सवाल से भटकना नही चाहिए.