उषाकालीन सूर्य का भारत में प्रथम स्वागत करने वाला राज्य अरुणाचल लगभग पूरा पहाड़ी प्रदेश है. इस राज्य पर ईश्वर की विशेष अनुकंपा का पता इस बात से चलता है कि राज्य का लगभग दो-तिहाई क्षेत्र जहाँ सघन वनों से आच्छादित है जिनमें एक से एक दुर्लभ वृक्ष हैं वहीं इस राज्य के पास प्रचुर जल-संसाधन भी है.
इसके अलावा प्रकृति ने इस राज्य को जनजातीय विविधताओं से भी सजाया है. यहाँ कई जनजातियाँ निवास करतीं हैं जिनमें लगभग हरेक की अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति, परम्परायें और रीति-रिवाज हैं.
इन सबसे ऊपर अरुणाचल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि पूरे पूर्वोत्तर में यह सबसे शांत प्रदेश है और भारत को कभी भी यहाँ के लोगों की तरफ से अलगाववादी मानसिकता का सामना नहीं करना पड़ा पर मिशनरी इस राज्य पर भी कहर बनकर टूटे.
जब यहाँ भी मिशनरी गतिविधियाँ बढ़ने लगी और यहाँ के लोगों को लगने लगा कि हमें भारत से अलग करने और हममें अलगाववादी मानसिकता विकसित करने की कोशिश हो रही है तो वहां लोगों ने मिशनरियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.
कई चर्च पर हमले हुए और मिशनरियों को अरुणाचल से निकल जाने को कहा गया. इसके बाद वहां छद्म सेकुलर राजनीति का असली खेल शुरू हुआ.
लोकसभा सांसद रानो साईजा और मारग्रेट अल्वा (दोनों ईसाई) दोनों ने अरुणाचल में अपना डेरा डाल दिया और छद्म सेकुलर प्रेस का इस्तेमाल कर एक छोटी घटना को बड़ा बनाकर दुनिया भर में इस रूप में कहकर प्रचारित किया कि अरुणाचल के लोग कितने हिंसक है.
उनके इस कुकृत्य ने अरुणाचल के राष्ट्रवादी नेताओं को आग-बबूला कर दिया. उस समय पी के थुंगन अरुणाचल के मुख्यमंत्री और श्री के ए ए राजा वहां के उप-राज्यपाल थे.
इन दोनों ने स्पष्ट ऐलान कर दिया कि अरुणाचल की संस्कृति के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं की जायेगी.
फौरन अरुणाचल सरकार ने उप-राज्यपाल के सहयोग से वहां ‘अरुणाचल प्रदेश इनडीजिनस फेथ बिल’ नाम से एक धर्मांतरण विरोधी कानून पास करवाया.
जैसे ही ये कानून पास हुआ मानो पूर्वोत्तर के राज्यों में भूचाल आ गया. शिलांग (जो उत्तर पूर्व में उस समय ईसाईकरण का केंद्र था) से लेकर मिजोरम और कोहिमा से लेकर इम्फाल तक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये.
वॉइस ऑफ़ अमेरिका, बीबीसी, स्पेन और ऑस्ट्रेलिया के समाचारपत्र अरुणाचल की ख़बरों से पट गये. भारत में भी जगह-जगह छद्म सेकुलर पार्टियाँ और मीडिया इस खबर को इस रूप में दिखाने लगी मानो अरुणाचल से अधिक असहिष्णुता कहीं है ही नहीं.
अरुणाचल के लोग इस विश्वव्यापी विशाल ईसाई नेटवर्क का प्रसार देखकर हक्के-बक्के रह गये, उन्हें समझ ही नहीं आया कि ये वही मीडिया और वही लोग हैं जिन्होंने चीन हमले के दौरान भी अरुणाचल को ठीक से कवर नहीं किया था और आज धर्मांतरण विरोधी कानून पास होते ही इतने सक्रिय हो गये कि पूरी दुनिया में अरुणाचल को बदनाम कर दिया.
बहरहाल अरुणाचल के हिम्मती नेताओं ने इन विरोध प्रदर्शनों की जरा भी परवाह न की और धर्मांतरण विरोधी कानून को वापस नहीं लिया.
ऐसा नहीं है कि इस बिल के बाद अरुणाचल में ईसाईकरण के प्रयास नहीं हुये. हुये, कैसे हुये ये कभी और लिखूँगा पर आज इस घटना के स्मरण का हेतु ये है कि हाल में अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री स्वर्गीय कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी.
कलिखो पुल पिछले वर्ष काँग्रेस से विद्रोह कर भाजपा के समर्थन से अरुणाचल के मुख्यमन्त्री बने थे और माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में उनकी सरकार को अवैध करार दिया गया था.
इस घटना के बाद से ही कलिखो पुल गहरे अवसाद में चले गये थे और अंततः उन्होंने आत्महत्या कर ली थी. आत्महत्या से पहले उन्होंने जो लम्बा पत्र लिखा था उसे ज़ी न्यूज़ को छोड़कर देश की किसी भी भ्रष्ट मीडिया ने संज्ञान में लेना उचित नहीं समझा.
सोचिये अगर भारत के किसी और राज्य के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने अगर आत्महत्या की होती तो क्या उस खबर को भी ये दोगली मीडिया इसी तरीके से इग्नोर कर देती?
आधे-पौने राज्य के एक अराजक नेता की मामूली नौटंकी को भी जो मीडिया रात-रात भर दिखाती है उसके लिये एक राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री का आत्महत्या करना सिर्फ एक मामूली खबर है.
सेकुलर दलील दे सकते हैं कि चूँकि अरुणाचल सुदूर प्रदेश है, लोग उसके बारे में ज्यादा नहीं जानते तो उस राज्य के अधिक समय देना मीडिया के उचित नहीं था.
फिर हमारा सवाल ये है कि आज से चालीस साल पहले इसी मीडिया ने और इन्हीं छद्म सेकुलरों ने ‘अरुणाचल प्रदेश इनडीजिनस फेथ बिल’ के विरोध में जो अपने अखबार रंगे थे और सारी दुनिया में चीख-चीख कर अरुणाचल को बदनाम किया था, वो क्या था और क्यों था?
आये दिन संघ परिवार को सदभावना की नसीहत देते हुए उसे भारत की एकता के लिये खतरा बताने वाली बिकी हुई मीडिया और छद्म सेकुलरों के इस चरित्र को दोगलेपन की इन्तेहा के रूप में क्यों न देखा जाये?