ये उत्तेजनाओं का नगर है
जहां देह की गंध भी उत्तेजित करती है और दुर्गन्ध भी
जहां मानस पटल पर उभरती और धुंधली होती
प्रणय की कल्पनाएँ
मानसिक उत्तेजना के नाजायज़ शिशु को जन्म देती है…
लेकिन उत्तेजनाओं के ये शिशु किसी और के घरों में बड़े होते हैं….
ये उत्तेजनाओं का नगर है
यहाँ क्रोध भी जब गली से गुज़रता है तो
कमसिन ख्वाहिशें अपने उरोजों पर दुपट्टा डाल लेती हैं…
नुक्कड़ की दीवारों पर लगे
सी ग्रेड फिल्म के पोस्टर आइना हो जाते हैं
जब मानसिक उत्तेजना के नाजायज़ शिशु
इतने बड़े हो जाते हैं कि
अपने कौमार्य की रक्षा नहीं कर पाते
और समाज की खोखली मान्यताओं के पीछे छुपकर
स्खलित होते रहते हैं…
ये उत्तेजनाओं का नगर है…
यहाँ केवल दैहिक और मानसिक ही नहीं
सूरज ढल जाने के बाद
बौद्धिक उत्तेजनाएं भी
होठों पर लाली लगाएं
ग्राहकों को अपनी अदाओं से
आकर्षित करती रहती हैं…
ये उत्तेजनाओं का नगर है…
यहाँ उत्तेजनाएं सामाजिक भी होती हैं
अच्छे घराने की लड़की की तरह
ऊंची वर्जनाओं संग ब्याह दी जाती है….
और बदन से बाहर निकलने की कोशिश की
तो उसी विवाह वेदी को चौके का चूल्हा बनाकर
देवी के खूंटे से बाँध दी जाती हैं….
ये उत्तेजनाओं का नगर है…
आध्यात्मिक उत्तेजनाएं किसी और जगह की नहीं
यहीं की हैं…
ज्ञान, ध्यान और भक्ति के मंत्र को
जीवन के कानों में फूंककर
ज़ोर का अट्टाहस करती है…
कि इस नगर के बाहर
कोई मंज़िल नहीं…
तुम्हारे सोचे हुए सारे महल रसातल हो चुके हैं…
तुम्हारी लिखी हुई सारी इबादतें, आयतें, किताबें और ग्रन्थ
अग्नि के हाथों लिखी गयी हैं…
तुम्हारा सोचा हुआ हर पल भूतकाल के पहाड़ पर
चढ़ बैठता है…
तुम्हारे भविष्य के सपने
वर्तमान की खाई में खुदकुशी कर लेते हैं….
ये उत्तेजनाओं का नगर है….
तुम यहाँ शांत नहीं हो सकते….
शांति की तलाश है तो
जाओ पहले उन नाजायज़ शिशुओं को
वापस उनकी माँओं के गर्भ में पहुंचाओ…
और जानों कि गर्भ में आने से पहले
वो बीज रूप में कहाँ पर स्थित थे….
वहीं ना जहां तुम उत्तेजित नहीं साक्षात उत्तेजना थे…
अपने पूर्व जन्म के कर्मों के तर्पण के बिना मोक्ष नहीं…
कहीं नहीं….