खाने की बात हो और स्वामी ध्यान विनय का ज़िक्र ना छिड़े ऐसा भला हो सकता है….
तो बात 2008 के पहले की ही है जब ध्यान विनय से मुलाक़ात नहीं हुई थी और हम सिर्फ ईमेल से बात करते थे. उन दिनों उनसे मैंने शुरुआती परिचय प्राप्त करने के लिए एक प्रश्न किया था आप काम क्या करते हैं?
और उनका जो जवाब आया था उसे ज्यों का त्यों रख रही हूँ…
पढ़ता हूँ और खूब पढ़ता हूँ पर मांग कर नहीं, अमृता प्रीतम को तो पढ़ा नहीं जिया है. जब सुनता था, तब खूब सुना…. पंडित जसराज और पंडित भीमसेन जोशी, मेहदी हसन, ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह को. खाने का शौक बिल्कुल नहीं, जो चाहे खिला दीजिये, कई दफा तो पता ही नहीं चलता कि खाया क्या – पढ़ते हुये जो खाता हूँ.
पहनने का भी ये ही आलम है, तन ही तो ढंकना है. शराब खूब पी, 7 साल पहले अपने आप से बाते करते हुये छोड़ दी, सिगरेट बेतहाशा पी, याद ही नहीं कब छोड़ी.
अब रहा सवाल दो जून की रोटी का – तो मोहतरमा, दोनों जून मिला कर कुल 8 रोटी चाहिये, उसके साथ जो मिल जाये, अब इतने से के लिये मै काम करूँ और फिर काम से जुड़ी हज़ार झंझटे झेलूँ?
इतना तो, जब भी आपके दरवाज़े खड़ा हो जाऊँगा, मिल जायेगा.
हाँ, शौकिया कर लेता हूँ काम, मसलन 2 साल एक कम्प्यूटर इंस्टिट्यूट में कम्प्यूटर हार्डवेयर पढ़ाया, सिखाया. निरर्थकता समझ में आते ही छोड़ दिया. आजकल एक पीएचडी की थीसिस को हिंदी से अँगरेजी मे अनुवाद कर रहा हूँ, साथ ही कुछ प्रोफेशनल्स को अंग्रेज़ी सिखा भी रहा हूँ. मैं कुछ मांगूंगा नहीं, वो दिये बिना नहीं मानेंगे, कुछ और किताबें आ जायेंगी.
कुछ लोगों का कहना है कि मै पैदायशी शिक्षक हूँ. बस यही तो सारे झगड़े की जड़ है कि “मैं क्या हूँ”.
जीवन में ये पहला मौका था जब मुझसे कोई इस अंदाज़ में बात कर रहा था… पहले तो लगा मुझे इम्प्रेस करने के लिए सामने वाला आधी तो गप्पे हांक रहा है… ऐसा भला हो सकता है… कि काम ही नहीं करता होगा… भले दो वक्त की रोटी के लिए ही सही, भले तन ढांकने जितने कपड़ों के लिए ही सही काम तो करना ही पड़ता है…
लेकिन उनके पास जबलपुर आने के बाद मैंने जाना वो सच में काम नहीं करते… मतलब पैसों के लिए तो कभी करते नहीं देखा… शौकिया जितना कर ले… क्योंकि उनकी कोई आवश्यकता ही नहीं है… आप खाना दो तो खा लेंगे… ना दो तो “गुरुदेव”… “गुरुदेव” कहते हुए खिलाने वाले बहुत है… कपड़े जब तक गल के फटने की कगार पर न आ जाए… नए कपड़े नहीं पहनेंगे… नए कपड़े इनको सूट नहीं करते, पहनने से पहले कम से कम चार बार धुलवाते हैं… ताकि उसमें कुछ पुरानापन आ जाए.. वो भी खुद कभी नहीं खरीदते… लोग तोहफे में दे जाते हैं, तो ये पहन लेते हैं… न जाने क्या जादू है इस व्यक्ति में कोई भी इनको जीवन भर के लिए गोद लेने के लिए तैयार हो जाए…
और यही जादू मुझ पर भी चल गया तो मैंने सोचा चलो मैं ही गोद ले लेती हूँ… तो मेरे जिस सवाल के बदले इन्होंने ये जवाब लिखा था वो कुछ यूं था…
पैसों के लिए काम तो मैंने भी कभी नहीं किया – बहुत सारी जगह काम करने के बाद यहाँ मन माफिक काम मिल गया, लेखन और रचनात्मकता से जुड़ा हुआ, ऊपर से इंटरनेट की सुविधा, जैसे दुनिया इंटेलिजेंट बक्से के में सिमट गई. कुछ नहीं करने के बाद भी आप कुछ तो ऐसा करते होंगे जिससे दो जून की रोटी खाने लायक या कुछ शौक पूरे करने लायक पैसा मिल जाता होगा… या पैसा इतना है कि काम करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती?
और यह बात आज भी लागू होती है कि मैं काम पैसे कमाने के लिए कभी नहीं करती…. काम मेरी ऊर्जा का स्त्रोत है… और काम वही करती हूँ जिसमें आनंद आए… मजबूरी में कभी कोई काम नहीं करती चाहे कितना ही पैसा आए… इसलिए मेरे मनमाफिक काम के लिए जितना भी पैसा आ जाए.. ऊपर वाले की दुआ समझ कर रख लेती हूँ. पैसों के लिए काम नहीं करती इसलिए जब जितनी ज़रूरत होती है उतने पैसे कहीं ना कहीं से आ जाते हैं.. और साथ में जुड़े कर्म का निर्वाह भी हो जाता है…
लेकिन कहाँ तो मैं स्वामी ध्यान विनय को गोद लेने की बात सोच रही थी… और कहाँ मेरा अपना जीवन उनके जैसा हो गया… व्यंजन और व्यंजनों का स्वाद अब कोई मायने नहीं रखता.. शरीर को जितनी आवश्यकता होती है उतना ही खाती हूँ… हाँ खिलाने का शौक आज भी खूब है… जहां तक कपड़ों का सवाल है… अपने फ़कीर के साथ कब फकीरी वाला जीवन जीने लगी पता ही नहीं चला…
कई बार बड़ी ननंद टोक देती हैं… क्या भाभी तिरंगा पहनी हो… सलवार किसी और रंग की, कुरता किसी और रंग का और दुपट्टा किसी और सूट का… मैं हंस देती हूँ… अरे भई इस सलवार के साथ का कुरता फट गया है… और जो कुरता पहना है उसकी सलवार गल गयी है… और दुपट्टे का क्या है… आजकल अलग अलग रंग के stole डालने का तो फैशन है…
तो नए कपड़े बहुत कम खरीदे हैं मैंने… वही तन ढांकने के लिए जितनी आवश्यकता होती है… बाकी, लोग तोहफे में दे जाते हैं... जीवन का सबसे कीमती तोहफा अम्मा (सासुमा) के जाने के बाद मिला जब पापा (ससुरजी) ने उनकी साड़ियाँ अलमारी से निकालकर मुझे थमा दी थी… उस पर भी लिखूँगी कभी…
तो इतनी कहानी के बाद मुद्दा यह है कि स्वामी ध्यान विनय पिछले कई दिनों से चाह रहे हैं कि हाथ से गेहूं पिसने वाली चक्की लाई जाए.. क्योंकि हाथ से पीसे हुए आटे से स्वाद और स्वास्थ्य दोहरा लाभ है, फिर अलग से व्यायाम की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, बिजली का कम से कम उपयोग हमें प्रकृति से जोड़ता है… वैसे भी कम्यूटर मोबाइल के कारण ऊर्जा का इतना नाश हो रहा है…
चूंकि उनके रंग में रंग गयी हूँ तो जीवन शैली अपनी भी कुछ वैसी ही है… घर में मिक्सर ग्राइंडर होने के बावजूद चटनी मसाले सिल बट्टे पर ही पीसती हूँ… दूध की जमा की गयी मलाई को हर हफ्ते हाथ से ही यानी मथानी से ही फेंटती हूँ…
अब कल हम मलाई का तपेला लेकर इनके पीछे ही बैठ गए… ये कुर्सी पर बैठे कम्प्यूटर पर टक टक कर रहे थे, मैं ज़मीन पर बैठकर मथानी से मलाई फेंट रही थी… दोनों बच्चे मक्खन के लालच में मेरे आसपास बैठ किसी बात पर ठहाके लगा रहे थे…
इन्होंने पलटकर देखा.. और इन्हें पता चल गया मेरे हाथ में तकलीफ है इस वजह से मैं ठीक से मलाई नहीं फेंट पा रही. ये अपनी कुर्सी से उठे मुझे उठाकर कहा आप अपना मेकिंग इंडिया संभाले मैं आपका घर संभालता हूँ… और आजकल अक्सर ताना देते हैं… कितना सुकून भरा जीवन था मेरा… आखिर आपने और आपके मेकिंग इंडिया ने मुझे काम पर लगा ही दिया…
अब मैं कुर्सी पर… ये बच्चों के साथ ज़मीन पर… आठ सालों में पहली बार इनको यह काम करते देखा… तो ये विचार पुख्ता हो गया कि घर में गेहूं पिसने की हाथ चक्की बहुत जल्द आने वाली है… बच्चों के लिए भी यह एक नया सीन था जिसका उन्होंने भरपूर आनंद लिया… मक्खन निकला बच्चों ने खाया … मैंने फिर उसे मठे से अलग किया, मक्खन का घी बना … मठे को रात को जमा दिया तो सुबह उसकी कढ़ी बनी..
कढ़ी का पहला कौर खाते से ही बोले “वाह”…
मैंने पूछा – क्या हुआ..
बोले – भाई मेरी मेहनत की कढ़ी है… ऐसा अद्भुत स्वाद… वाह…
मैं मुस्कुरा दी… फिर शाम को घी छानकर बचे हुए खतकर में रवा डालकर लड्डू बनाए.. और स्वामीजी को भोग लगाया…
एक कौर खाने के बाद विनय+नायक= विनायक मतलब गणपति ने पूरे दो लड्डू मुंह में भरकर इतना स्वाद ले लेकर खाया… कि हर बार मुंह से वाह वाह निकलता रहा… बच्चे पापा को इस रूप में पहली बार देखकर अचंभित हो रहे थे…
कहने लगे.. क्यों इस फ़कीर को फिर से सांसारिक बनाने पर तुली हो देवी.. पहले ही कहा है ना…
हाँ भई हाँ जानती हूँ…. दो समय की 8 रोटी और अचार से भी आपका काम चल जाएगा… अरे हाँ अचार से याद आया वलसाड से जो आम का पानी वाला अचार लाई थी उसकी रेसिपी भी तो लिखना है… लेकिन पहले अपने मेकिंग इंडिया के पाठकों को ये रवे के लड्डू बनाना तो बता दूं..
लेकिन उसके पहले ये अंतिम बात आपके लिए स्वामीजी… आपने रामकृष्ण परमहंस के बारे में तो सुना ही होगा कि उन्होंने सारे सांसारिक मोह त्याग दिए थे… लेकिन इस संसार में वो अटके रहे तो सिर्फ उनके खाने के शौक के कारण…
तो बस आप परमहंस बने रहिये… लेकिन आपकी ये शारदा भी आपको ऐसे ही छोटी छोटी बातों से संसार में अटकाए हुए रखेगी… अभी मुझे और इस संसार को आपकी ज़रूरत है…
चलिए स्वामी ध्यान विनय एक और लड्डू मांग रहे हैं … वो उनको दे दूं तब तक आप यह आसान सी रेसिपी पढ़ लीजिये.
दो कटोरी रवे को धीमी आंच पर सेक लीजिये.
अब या तो दो बड़े चम्मच शुद्ध घी में रवे को सेकिये, या फिर जो लोग घर में ही घी बनाते हैं वो उस बचे हुए घी के खतकर में सिके रवे को मिलाकर दो चार मिनट और भूंज लें.
इसमें डालिए एक कप पीसी शक्कर, एक चौथाई चम्मच पीसी इलायची, आधा कप नारियल का बूरा.
इस मिक्चर को अच्छे से मिलाकर गैस बंद कर दें.
अब इसमें आधा कप मलाई डालकर अच्छे से मिला दें और गरम गरम रवे के ही लड्डू बाँध लें.
फोटो में जो मेरे हाथ इतने लाल दिख रहे हैं, वो इसीलिए हैं क्योंकि रवा बहुत गरम है, ठंडा हो जाने के बाद लड्डू बांधना ज़रा मुश्किल होता है.
जिनको लगता है घर में गृहणियों को खाना बनाने के अलावा काम ही क्या होता है, वो ये जान लें कि चूल्हे की आग पर साधारण सी रोटी सेंकने से लेकर रवे यानी सूजी के मीठे लड्डू बनाने तक आपकी ये अन्नपूर्णा आग से खेलती हैं.. क्योंकि यह बात एक कुशल गृहणी ही जानती हैं कि घर में खुशियाँ पकाना हो तो अग्नि देवता को प्रसन्न रखना ज़रूरी है.
तीसरा लड्डू खाने के बाद स्वामी ध्यान विनय कह रहे हैं किस्सा तो लिख लेंगी आप, रेसिपी भी लिख लेंगी, वो स्वाद कैसे लिख कर बताएंगी जो लड्डू में हैं… और वो आनंद कहाँ से लिखेंगी जो लड्डू खाने के बाद मिला है. 🙂