एक लड़का था, आवारा, बदमाश वगैरह. कभी शांत न रहता, कुछ न कुछ उपद्रव जरूर करता.
लोग मारने जाते तो तेज भागकर घर पहुंचता, और उसके माँ-बाप उसका बचाव करते, कहते बच्चा है, गलती हो जाती है.
लोग ज्यादा ही भड़के होते तो माँ-बाप कहते पागल है. अब माँ-बाप को देखकर लोग वापस घर जाते. लड़के के उपद्रव बढ़ते ही जा रहे थे.
एक दिन कुछ ज्यादा ही उत्पात कर दिया तो लोग भी ज्यादा गुस्सा हुए, तो माँ-बाप ने हमेशा वाले अंदाज में कहा जाने भी दीजिये, लड़का पागल है.
एक आदमी ने टोका, क्या आप के घर भी ऐसी ही तोड़ फोड़ करता है ये?
ना ना, बाप बोला, इतना भी तो पागल नहीं है.
लोग खीझकर लौट गए.
चार दिन बाद लड़का फिर रंग में था. लोग फिर उसके पीछे पड़े. लड़का घर पहुंचा, हमेशा के अनुसार सवाल-जवाब हुए. और वही जवाब आया – इतना भी तो पागल नहीं है.
तब अचानक भीड़ में से वही आदमी सामने घुस आया. दो-तीन लोग उसके साथ भी थे. किसी को कुछ समझ में आए इतने में उसने लड़के के बाप को दो कस के कंटाप जड़ दिये. और उसके साथियों ने उसकी लाठियों से धुनाई कर दी.
लड़का देख रहा था, लेकिन बाप को बचाने नहीं आया. माँ चिल्लाती रही. काफी भीड़ जमा हुई लेकिन कोई बीच में नहीं आया. उस परिवार के मोहल्ले वाले भी उनकी हरकतों से परिचित थे.
लड़के को किसी ने नहीं मारा हालांकि वहीं खड़ा था. लेकिन उसे जो भी देखता, बाप को एक घूंसा-लात जरूर लगा देता.
उसके बाद वो लड़का काफी अच्छा बच्चा बना रहा.
नोट : पूरी बोध कथा में समुदाय विशेष या वामीडिया या उनके कलहजीवी विषारकों का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है ये नोट किया जाये तथा बोध कथा से कुछ बोध लेना होता है, यह भी नोट किया जाये.
बोधकथा समाप्त. पारायण करें, औरों को भी कराएं. सर्वे भवन्तु सुखिन: