नामचीन उपन्यासकार और पॉकेट बुक्स के शहंशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक की जब मैं नई-नई पाठिका बनी थी तब उन्हें एक लंबा सा पत्र लिखा था. वो पत्र उन तक पहुँच पाया या नहीं ये मुझे नहीं पता…. उस समय ज्योतिर्मय मेरे गर्भ में थे… 2009 में लिखे उस पत्र को मैं ज्यों का त्यों आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ ..
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बहुत छोटी थी जब मेरी मम्मी और घर की औरतें रात को सोने से पहले या दोपहर को आराम करते समय गुलशन नंदा, रानू या वेद प्रकाश या और भी कई उपन्यासकारों के उपन्यास पढ़ा करती थीं… तब उन पॉकेट बुक्स के कवर पेज पर बनीं तस्वीरें मुझे उन किताबों के प्रति ऐसे भाव पैदा करती थी कि मुझे लगता था कि घर की औरतें ऐसी गंदी किताबें क्यों पढ़ती हैं? और ये भाव मेरे मन में बड़े होने तक बना रहा..
होश संभालने के बाद मैंने खुद को साहित्यिक और आध्यात्मिक किताबों में दिलचस्पी (बकौल पाठकजी- जिगरचस्पी और गुर्दाचस्पी भी) लेते हुए पाया. जिनमें सबसे पहले ओशो, फिर अमृता प्रीतम, राही मासूम रजा, प्रेमचंद, शरतचंद, दुष्यंत कुमार जैसे नाम आते हैं. सिर्फ पढ़ने का ही नहीं, लिखने का भी शौक रहा और आत्ममुग्धता की स्थिति बनने तक लिखा है.
फिर एक बहुत ही दिलचस्प लव-स्टोरी के साथ मेरा प्रेम-विवाह हुआ, दिलचस्प इसलिए कि प्रेम-विवाह होने के बावजूद हमने विवाह के दिन तक एक दूसरे को देखा तक नहीं था. खैर वो किस्सा फिर कभी. पति का नाम- विनय नायक जिन्होंने घर में एक छोटी-सी लाइब्रेरी बना रखी है, जिसमें 6000 से ज्यादा किताबें हैं. विवाह के शुरुआती दिनों में तो जैसे मैं उन किताबों के बीच खोई रहती थी- कौन-सा लेखक नहीं है उनके पास… मुक्तिबोध, गुरुदत्त, खुशवंत सिंह, आबिद सुरती, बच्चन, मंटो, गोर्की, आयन रेंड और ओशो की तो कम से कम 200-300 किताबें… और इन किताबों के अलावा एक अलग अलमारी में एक लेखक की लगभग 250 किताबें!!! और लेखक का नाम है ‘सुरेन्द्र मोहन पाठक’… पिछले बीस सालों से आपको पढ़ते आ रहे हैं… आपके बहुत बड़े प्रशंसक हैं..
जब मैंने पहली बार वो किताबें देखीं तो मेरे चेहरे पर आश्चर्य मिश्रीत और थोड़े बिगड़े हुए भाव थे- “आप ये सब भी पढ़ते हैं!! और उनका एक ही जवाब होता था- “आप एक बार पढ़कर तो देखिये सब पढ़ना छोड़ देंगी”
और मैं कहती- मैं “ऐसी” किताबें नहीं पढ़ती… उनकी आदत है वो किसी किताब के लिए जोर नहीं देते बस इंतज़ार करते हैं कि कब मेरी नज़रें “ऐसी” किताबों पर इनायत होती हैं, जिसे मैं अपने स्तर का न समझकर नकार देती हूँ…
फिर ख़याल आया कि जो शख्स इतने बड़े-बड़े साहित्यकारों और ओशो जैसे आध्यात्मिक व्यक्ति के प्रवचनों का संकलन अपनी लाइब्रेरी में रखता है उसी के साथ….. साथ भी कहाँ अलग अलमारी में SMP के सारे उपन्यासों को रखता है, उस लेखक में कोई तो अलहदा बात होगी..
फिर एक दिन ऐसा आया – सोचा चलो देखें तो सही पढ़कर, कैसे होते हैं ये उपन्यास जिसको मम्मी भी इतनी डूबकर पढ़ा करती थी और पतिदेव भी… पतिदेव की ही सलाह पर विमल सीरिज़ का सबसे पहला उपन्यास उठाया “मौत का खेल”… पहला उपन्यास पूरा करने में थोड़ा समय लगा… शायद चार-पांच दिन… चूंकि विमल सीरिज़ के उपन्यासों में The End जैसा मामला नहीं होता, इसलिए उत्सुकता बनी रही कि देखें उसके अगले भाग में विमल का क्या हुआ और इस सिलसिले में “दौलत का खून”, फिर “इश्तिहारी मुजरिम” और एक एक करके मैंने विमल सीरिज़ के लगातार 11-12 उपन्यास एक साथ पढ़ डालें…. मुझे हर वक़्त विमल सीरिज़ के उपन्यासों से साथ चिपका देखकर पति के मुंह से बस यही निकलता- “गुड! वेरी गुड!!
मैं जानती थी उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा मुझसे यही पूछ रहा था- “और कैसा लग रहा है” और मैं अपनी उत्सुकता और दिलचस्पी को छुपाने का भरसक (इस भरसक पर आज भी ध्यान विनय से लड़ पड़ती हूँ कि ये भरकस होता है भरसक नहीं) प्रयास करती हुई कहती – हां, अच्छा है! फिर एक समय आया सोचा विमल को यहीं ब्रेक देकर सुनील सीरिज़ पढ़ना शुरू करती हूँ…
आपको पता है अभी मैं उम्मीद से हूँ… चंद महीनों बाद घर में बच्चे की किलकारी गूंजेंगी और मुझे लग रहा है कि मैं जिस स्पीड से सुनील सीरिज़ की किताबें पढ़ रही हूँ (एक दिन में एक और कभी-कभी दो), या सुनील और रमाकांत के बीच होने वाली मीठी तकरार या अर्जुन और रेणू की सुनील के साथ होने वाली बहस या उनके सेन्स ऑफ़ ह्यूमर के कारण जो मैं पेट पकड-पकड़ कर हंसती हूँ उस वजह से मेरे होने वाले बच्चे पर कैसा प्रभाव पड़ रहा होगा…
मैं अपने पतिदेव से अब यही कहती हूँ कि कहाँ मैं गर्भकाल के दौरान ऊँचें ऊँचें साहित्य पढ़कर अपने बच्चे पर अच्छे संस्कारों वाली छाया डालना चाह रही थी और कहाँ अब मुझे लग रहा है कि यदि मैंने पाठक जी को नहीं पढ़ा होता तो मैं अपने बच्चे को कितना कुछ देने से चूक जाती… मुझे तो लगने लगा है कि कहीं वो जब बोलना सीखेगा तो सबसे पहले यही न बोले- “हस्या ई कंजर”
विमल और सुनील के अलावा मैंने सुधीर और आगाशे के भी दो तीन उपन्यास पढ़े हैं, लेकिन जितना प्रभावित मैं सुनील के कैरेक्टर से हुई हूँ शायद और किसी से नहीं हुई… ऊपर से आप हर पुस्तक के पहले जो लेखकीय प्रस्तुत करते हैं उसमें से कई बातें इतनी प्रभावित करती हैं कि उसे मैं अपनी डायरी में नोट कर लेती हूँ… जैसे आपने “नकाब” के लेखकीय में महान पुस्तक प्रेमी इंग्लैण्ड के चार बार प्रधानमंत्री रह चुके, सर विंस्टन चर्चिल की पंक्तियाँ उद्धृत की है- “अगर आप अपनी पुस्तक पढ़ नहीं सकते हैं, तो कम से कम उन्हें हैंडल कीजिये-उन्हें चहिये, टटोलिये, उनके साथ लाड़ लड़ाइए ….”
मुझसे बेहतर इस बात को कौन समझ सकता है कि जब मुझे जिस तरह के सपोर्ट या उत्साह की या भावना की ज़रुरत होती है, मैं अपनी किताबों की अलमारी के सामने खड़ी हो जाती हूँ… मेरा हाथ अपने आप ऐसी ही किसी किताब की तरफ उठ जाता है और जो कोई पृष्ठ मेरे सामने खुला होता है जो मेरी ज़हनी ज़रूरत को पूरा कर देता है…
आपने “भक्षक” के लेखकीय में एक बहुत अच्छी बात कही है कि – “सबसे सुखकारी बात यही है कि केबल, इन्टरनेट जितनी मर्जी तरक्की कर लें, प्रिंट मीडिया को ख़त्म नहीं कर सकते…
अपने लेखकीय में आप हर तरह की प्रतिक्रया को बड़ी इमानदारी से सम्मिलित करते हैं, चाहे वो अच्छी हो या बुरी.. ये बात आपके व्यक्तित्व में और निखार लाती है… एक लेखिका होने के नाते मैं आपकी एक और बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि जब हम कुछ लिख रहे होते हैं तब हम हम नहीं होते… एक Trance की स्थिति आती है और कलम अपने आप चलने लगती है…यहाँ पर मैं इस बात की पुष्टि के लिए ऑग मैंडीनो की पुस्तक “दुनिया का सबसे महान चमत्कार” का ज़िक्र करना चाहूंगी, जिसमें लिखा है- “कई संगीत रचनाएं, कई पुस्तकें और कई नाटक ऐसे होते हैं जिनकी किसी संगीतकार, कलाकार, लेखक या नाटककार ने नहीं बल्कि ईश्वर ने रचना की है… इसकी रचना करने वाले लोग तो निमित्त मात्र होते है, जो ईश्वर के आदेशानुसार रचना कर रहे थे, ताकि वह अपनी बात हम तक पहुंचा सके”
मैंने अभी तक आपकी 50-55 किताबें पढ़ी हैं और मैं खुद को रोक न सकी पत्र लिखने से और मेरे पति पिछले 20 सालों से आपको पढ़ रहे हैं और अब तक उन्होंने आपको एक भी पत्र नहीं लिखा, मुझे आश्चर्य होता है… मेरे ख़याल से पत्र लिखने के बजाय शायद वो आपसे सीधे मुलाक़ात के इच्छुक हैं…. और सच पूछिए तो मुझे भी ये लगता है कि जब हम आपसे मिलेंगे तो आप हमें “यूथ क्लब” ले जाएंगे और फिर कहेंगे- इनसे मिलिए ये हैं सुनील और ये हैं रमाकांत”… कहने का मतलब आपने सिर्फ चरित्रों को ही नहीं, जगह को भी इतना जीवंत कर दिया है हमारे दिलों में ….
आपके पुराने उपन्यासों के साथ-साथ मैं आपके नए उपन्यासों को भी पढ़ती रहती हूँ, जिसमें धोखा, प्यादा, नकाब और तीसरा वार शामिल है… जैसा कि मैंने कहा जितना मुझे सुनील ने प्रभावित किया है और किसी ने इतना नहीं किया… इसलिए तीसरा वार अपने आप में अच्छा होने के बावजूद आगाशे की कोई सार्थक भूमिका नज़र नहीं आई…. आगाशे की जगह यदि अर्जुन या प्रभुदयाल को रख दिया जाए तो भी उपन्यास वैसा ही रहता… लेकिन आगाशे की जगह सुनील या सुधीर होते तो उपन्यास के कवर पेज से ही जगमग शुरू हो जाती…
एक आख़िरी बात – क्या आपके पास महिला पाठक वर्ग की ओर से पत्र नहीं आते? क्योंकि उनका ज़िक्र आपके लेखकीय में कहीं दिखाई नहीं देता. अपने प्रशंसकों की लम्बी सूची में एक नाम और शामिल कर लीजिये..
– पाठक की पाठिका शैफाली
ये ख़त उन तक नहीं पहुंचा था… लेकिन मेरी भावनाएं उन तक पहुँच गयी… और जैसे मैं हमेशा कहती हूँ आप ब्रह्माण्ड के कल्प वृक्ष के नीचे खड़े हैं… सच्चे दिल से कामना कीजिये, कामना पूरी होने का जादू देखिये और कृतज्ञता से भर जाइए… और फिर एक दिन उनका फोन मेरे पास आया… और पाठक जी की यह पाठिका कृतार्थ हुई.