मैंने तुरंत गाड़ी रुकवाई, ओशो आश्रम के मुख्य दरवाज़े से अन्दर दाखिल हुई तो बाहर एक ओशो संन्यासी की मूर्ति खड़ी थी, उसे देखकर एक ही ख्याल आया… हाँ शायद ऐसे ही तो होते हैं ओशो के तथाकथित अनुयायी… गेरुआ चोगा, गले में माला… ऐसे ही मूर्तिवत… जिसमें कोई जान नहीं…
फिर ख़याल आया वो सभी लगभग ऐसे ही मूर्तिवत होते हैं जो “सिर्फ” ओशो संन्यासी होने का दावा करते हैं, या जो सिर्फ ब्राह्मण होने का दावा करते हैं, या जो सिर्फ किसी एक पंथ के होने का दावा करते हैं..
एक उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगी –
हाल ही में बाजना मठ होकर आई थी तो वहां का वर्णन करते हुए मैंने प्रसिद्ध तांत्रिक श्रीमाली जी के गुणगान कर दिए… बहुत से लोग मेरे विरोध में उतर आये… एक ने तो यह तक कह दिया कि मेरा लेख पढ़कर उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी मंदिर में गधा बाँध आये…
मैंने कोई बहस नहीं की, मुझे तो बस माननीय प्रधानमंत्री मोदीजी की बात याद आ गयी कि गधे चूने और चीनी में फर्क नहीं करते, वो इसलिए तेज़ नहीं चलते क्योंकि उनकी पीठ पर चीनी है, और इसलिए काम करने से इनकार नहीं करते क्योंकि उनकी पीठ पर चूना है, क्योंकि काम करने में गधे भेदभाव नहीं करते.
तो उन्होंने ओशो का हवाला देते हुए कहा कम से कम इनका तो ख़याल किया होता श्रीमाली जी का ज़िक्र करने से पहले…. पहले तो मैंने मन ही मन उस गधे को प्रणाम किया अभी अभी दो बार लोगों ने उसकी तुलना इतने बड़े बड़े नामों के साथ कर दी… एक ऐसा प्राणी जिसे कभी अपमान के अलावा कुछ नहीं मिला उसका भी सोशल मीडिया पर सम्मान का दौर चल पड़ा है….
मन तो किया कि कहूं ओशो को कम बदनाम किया गया है… सम्भोग से समाधि की उनकी व्याख्या को लेकर ही नहीं बल्कि उन पर तो ध्यान के तरीकों के पीछे sex रैकेट चलाने तक का इलज़ाम लगा है, और तो और विदेश में तो वो जेल की यात्रा तक कर आये… एक समय ऐसा भी था कि उनको भारत में भी कोई जगह नहीं मिल पा रही थी… उन्हें अपने ही देश से देश निकाला दे दिया गया था…
श्रीमाली जी कितने सच्चे तांत्रिक थे या नहीं थे मेरे लिए ये बात सिर्फ इतनी ही मायने रखती है जितनी बब्बा (ओशो) का किसी बात को कभी बुद्ध की खूंटी पर टांग देना, कभी महावीर की खूंटी पर टांग देना, कभी क्राइस्ट तो कभी कृष्ण की खूंटी पर टांग देना और फिर अचानक से उन सब खूंटियों से सारी बातें उतार कर कचरे के ढेर में फेंक देना… अरे ये सब बातें तो कचरा है… भगवान तो बस मैं हूँ… ये “मैं”, मैं भी हूँ, तुम भी और वो भी..
तो बस ये सारे नाम तो खूँटियाँ हैं… लेकिन साधारण खूँटियाँ नहीं बड़ी रहस्यमय हैं ये… टांगने तो बात को गए थे… खुद ही उसमें टंग के रह जाओ ऐसी… खैर बाद में पता चला वो महानुभाव बहुत बड़े तंत्र मंत्र के ज्ञाता हैं, शाक्त परम्परा के हैं… श्रीमाली जी को अपनी आँखों के सामने बेइज्जत होते देखा है… मेरे मुंह से सहसा निकल गया – तो?
मन तो किया कि कहूं आपकी बात सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे पूछ रहे हो एक शाकाहारी होकर एक कसाई से प्यार कैसे हो सकता है आपको?
लेकिन फिर इसलिए चुप रह गयी क्योंकि मैं उनकी तरह तंत्र मंत्र की ज्ञाता नहीं, मैंने उनकी तरह भारी भरकम पोथियाँ नहीं पढ़ी. मेरे पास जैसे प्रेम के लिए कोई कारण नहीं होता वैसे ही मेरे पास नफरत के लिए कोई तर्क नहीं होता… जो सिर्फ ओशो अनुयायी हैं, जो सिर्फ शाक्त हैं, जो सिर्फ वैष्णव हैं, जो सिर्फ जैन हैं, जो सिर्फ हिन्दू हैं, जो सिर्फ मुस्लिम है… वो मेरे लिए “सिर्फ” हैं…
मैं अज्ञानी तो इनमें से कुछ भी नहीं… इसलिए मेरे पास जवाब देने के लिए ना कोई कारण होता है ना तर्क… ऐसे में स्वामी ध्यान विनय की एक ही बात याद आती है सबसे अच्छी मौन की भाषा…
तो जब लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं… आप ओशो की अनुयायी हैं? मतलब आप ओशो को फॉलो करती हैं… मैं उन लोगों को अक्सर मज़ाक में यही कहती हूँ, नहीं वो मुझे फॉलो करते हैं… वलसाड यात्रा में जैसे लग रहा था… हाँ सच में ये दढ़ियल मेरा पीछा कर रहा है…. तभी तो तीथल से लौटते हुए मुझे ओशो ध्यान केंद्र मिला और बब्बा (ओशो) मुझे खींचकर अन्दर तक ले गए… अपने सामने बिठा दिया.. न जाने क्यों मन में एक चलताऊ सी फिल्म का चलताऊ सा गाना बज उठा… खाली दिल नहीं जान वी ए मंगदा… इश्क़ दी गली विच कोई कोई लंगदा…
लेकिन मैंने जाना कोई कोई गाने में न जाने क्या बात होती है कितना भी चलताऊ सा क्यों ना हो… कोई एक तार आपसे ऐसे जुड़ जाता है जैसे आपके व्यक्तित्व या अस्तित्व के संगीत का कोई राग हो…
बस ये गीत भी मुझे ऐसा ही लगता है…. खाली दिल नहीं ये जान वी ए मंगदा… इश्क़ दी गली विच कोई कोई लंगदा… क्योंकि मेरे अलावा सिर्फ स्वामी ध्यान विनय जानते हैं… पूरी पूरी जान की बाजी लगाई है मैंने अपने इश्क़ के लिए…
इश्क़ है पानी का इक क़तरा
क़तरे में तूफ़ान
एक हाथ में अपना दिल रख ले
एक हाथ में रख ले जान
गीत की इन पंक्तियों के साथ मुझे अपनी ही लिखी एक कविता याद आती है …
उनके पास जीवन है, विज्ञान है, ताकत भी है
उनके पास जोश है, ज्ञान है, नफरत भी है
उनके पास प्यार है और परमात्मा भी है
उनके पास पानी है और आग भी है
उनके पास निर्जीव, सजीव दोनों दुनिया है
मेरे पास सिर्फ एक देह, एक आत्मा और कुछ संवेदनाए हैं
फिर भी वो नहीं जानते ये दुनिया कैसे चलती है
और मैं कहती हूँ मैं इश्क हूँ और दुनिया मुझसे चलती है…
ख़ाली दिल नहीं ये जान वी है मंगदा
इश्क़ की गली विच कोई-कोई लंगदा
मैं नहीं जानती मेरी कलम से ये पंक्तियाँ किसने उतारी… मैं नहीं जानती इस इश्क़ के लिए मुझे क्यों और किनके द्वारा चुना गया है, जिसके हर कतरे में सिर्फ और सिर्फ तूफ़ान है…
जोगियों के पीछे जैसे जोग लग जाता है,
प्रेमियों को प्रेम वाला रोग लग जाता है
लाख बचायें दामन लोग, लग जाता है,
दिल पे आशिकों के निशान इस रंगदा….
बहुत कोशिश की मैंने सिर्फ जोगन बन जाऊं… अपने जोगी की जोगन.. मेरा जोगी कहता है… ये जोग इतना आसान लगता है आपको? आप खुद कहती हैं “मैं इश्क़ हूँ दुनिया मुझसे चलती है…. मेरे पीछे जोगन बन जाने के लिए नहीं चुना गया है आपको… दुनिया से लुप्त हो रहे इश्क़ को बचाने के लिए आपको मेरे पास भेजा गया है…
आप कहती हैं मुझे अपने जैसा बना लो… मैं कौन होता हूँ आपको बनाने या बिगाड़ने वाला.. मैं तो बस आपको पूरी तरह आपके जैसा होने के लिए वातावरण दे सकता हूँ… गुलाब के फूल को जबरदस्ती पकड़ कर कमल का फूल कैसे बना दूं.. आप यदि गुलाब हैं तो गुलाब की तरह पल्लवित होने के लिए अनुकूल वातावरण दे सकता हूँ… ऊपरवाले की योजना में बस मेरी इतनी ही भूमिका है…..
ध्यान विनय में अक्सर में उस शिव का रूप पाती हूँ जिसका गोविन्द पुरोहित जी ने बहुत सुन्दर वर्णन किया है कि “शिव जो कभी तमोगुण के अधिष्ठाता है, कभी मंगल करण, कभी अघोरी, चिता भस्म से अपने अलौकिक देह का सौन्दर्यीकरण करने वाले, कभी-कभी दिगंबर, वस्त्रहीन विचरण करने वाले, कभी-कभी परम भोक्ता, विष्णु के मोहिनी अवतार से रमण को उत्सुक और कभी-कभी संपूर्ण जगत को आदर्श दाम्पत्य का आशीर्वाद देने वाले आदर्श दंपति.”
ध्यान विनय ने खुद सुनाई थी मुझे ये पंक्तियाँ और कहा था… आप मुझे शिव कहती हैं ना, तो यह भी जान लीजिये आप वो शक्ति हैं जिसके बिना आपका ये शिव वास्तव में सिर्फ शव है… आप ही शक्ति स्वरूपा दुर्गा हैं, आप ही पत्नी स्वरूपा पार्वती, आप ही रोद्र रूप धारण करने वाली काली और आप ही जीवन की निरंतरता को बनाए रखने वाली माँ कामाख्या.. आप यह क्यों भूल जाती हैं माँ कि आपका जन्म चैत्र नवरात्रि की दुर्गा अष्टमी को यूं ही तो नहीं हुआ…
दुश्मन है दिल का ऐसा मन का यह मीत है
जग से निराली इस खेल की रीत है
जीत में हार है, हार में जीत है
इश्क़ इश्क़ है, मैदान नहीं जंग दा…
अब तक की यात्रा में बस इतना ही जान पाई हूँ इस निराले खेल के नियम से मैं बिलकुल अनजान हूँ… लेकिन इस खेल के नियमों में कोई बंधन नहीं है…
या यूं कहूं ब्रह्माण्ड के स्वर्णिम नियमों के अंतर्गत ही यह खेल खेला जा रहा है… और समय समय पर मुझे इन नियमों का पता चलता रहता है… और हाँ यहाँ सच में जो जीत गया वो हार जाता है… और हारकर भी आप विजेता हैं… शायद इसलिए मैं खुद को इस खेल की हारी हुई खिलाड़ी समझती हूँ… इश्क़ इश्क़ है, मैदान नहीं जंग दा… इश्क़ की गली विच कोई-कोई लंगदा
नाम है दीवाना दूजा नाम नहीं कोई,
प्यार के जैसा बदनाम नहीं कोई
इश्क़ से बड़ा इल्ज़ाम नहीं कोई,
इश्क़ आशिकानूँ सूलियों उते टंगदा
सबकुछ जानती हूँ… इश्क़ की दीवानगी को जानती हूँ…. बदनामी को गले लगा रही हूँ आज की तारीख में इससे बड़ा कोई सच नहीं… सारे इलज़ाम ऊपरवाले की दुआ समझकर माथे से लगा रही हूँ…. और हाँ कभी इस इश्क़ के कारण ज़माने ने सूली पर टांग दिया तो हँसते हुए चढ़ जाऊंगी ये भी जानती हूँ…
क्योंकि मैं जानती हूँ
ख़ाली दिल नहीं जाँ भी है मंगदा
इश्क़ की गली विच कोई-कोई लंगदा
तभी तो कहती हूँ ना अक्सर… मैं इश्क़ हूँ दुनिया मुझसे चलती है…
ये वर्णन कदाचित गुजरात यात्रा का हिस्सा नहीं, लेकिन मेरी जीवन यात्रा का है… इसलिए ये भूमिका है गुजरात यात्रा के आगे के वर्णन के लिए…
(यात्रा जारी है)
पहले भाग यहाँ पढ़ें –
यात्रा आनंद मठ की – 1 : पांच का सिक्का और आधा दीनार
यात्रा आनंद मठ की – 2 : जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
यात्रा आनंद मठ की – 3 : यात्रा जारी है
यात्रा आनंद मठ की – 4 : Special Keywords To Optimize Your Search
यात्रा आनंद मठ की – 5 : तू आख़िरी स्थिति में ही है, देर न कर, संयोग के बिखर जाने में देर नहीं लगती
यात्रा आनंद मठ की – 6 : आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे…